Wednesday, January 11, 2012

ये कैसा पर्व है ! पूजा से अत्याचार की ओर . . .


लखन सालवी
भारत देश में त्यौहारों की लम्बी सूची है। गांवों में आज भी कई ऐसे त्यौहार मनाए जाते है जिनको मनाने के पीछे क्या धारणा है, नहीं पता। खैंखरा त्यौहार इसका एक उदाहरण है। यह पर्व राजस्थान के कुछ जिलों में मनाया जाता हैं, जिसे अलग अलग नामों से जाना जाता है। यह पर्व खासकर गांवों में मनाया जाता है तथा किसान इस त्यौहार को मनाते है। 
कभी बैलों की पूजा करने के उद्देश्य से मनाए जाने वाले इस त्यौहार की धारणा ही बदल चुकी है। अब इस त्यौहार का नाम ‘‘खैंखरा’’ से ‘‘खैंखरा भड़काना’’ हो गया है। अब बैलों की पूजा करने की जगह उन पर पटाखों की बौछार की जाती है। कुछ पटाखें उनकी पीठ पर, तो कुछ सिर के पास व कुछ पैरों के पास आकर दिल दहला देने वाली जोरदार आवाज के साथ फूटते है।

सजाया हुआ बैल
राजस्थान के गांवों में दीपावली के दूसरे दिन गांवों के किसान अपने बैलों की पूजा करते है। इस दिन को त्यौहार की भांति मनाया जाता है।  बैलों  को सजाया जाता है। उनके गले में घंटिया बांधी जाती है, उनके सिंगों को विभिन्न रंगों से रंगा जाता है तथा पूरे शरीर पर चित्रकारी की जाती है। 






गुणी पर बैल को लिए खड़े किसान 
गांव के सभी बैलों की पूजा एक चयनित स्थान पर की जाती है, इस स्थान (मोहल्ले) को ‘‘गुणी’’ कहा जाता है। गांव के सभी किसान जिनके पास बैल होते है, उनको सजा-सवांरकर गुणी पर लाते है। बैलों को यहां लाने से पहले नम्बरदार (वह व्यक्ति जो इस पूरे कार्यक्रम की व्यवस्था करता है तथा बैलों की पूजा करता है) गुणी में पीली मिट्टी व गोबर से लिपवाकर पवित्र करते है। वहां गुणी की पूजा कर कलश की स्थापना की जाती है। लोग अपने बैलों को पकड़कर कतार में खड़े रहते है। बैलों की लम्बी लाइन बन जाती है। नम्बरदार व पंच प्रत्येक बैल की पूजा करते है, उनका मुंह मीठा करवाकर आरती करता है। जब सभी बैलों की पूजा हो जाती है तो गुणी पर स्थापित किए गए कलश (मिट्टी का छोटा घड़ा) जिसे हेलुण्डी कहते है, को एक छोर से दूसरे छोर पर उछाला जाता है। दर्शक उस घड़े को लपकने की कोशीश करते है। अंतिम बैल की जोड़ी तक कलश उछाला जाता है, वहां कोई उस घड़े को लपककर अपने घर ले जाता है। उसके बाद सभी अपने-अपने बैलों को दौडा़ते हुए अपने घर ले जाते है। इस दिन न सिर्फ बैलों को ही सजाया जाता है, गांवों की महिलाएं, पुरूष, बच्चे-बूढ़े भी नए परिधान पहनकर खैंखरा देखने आते है। मेवाड़ में नाथद्वारा का ‘‘खैंखरा’’ बहुत ही प्रसिद्ध है। 

बैलों की पूजा करती महिलाएं
खैंखरा के बारे में गांवों के लोगों के कथन भिन्न-भिन्न है। कई गांवों  में  तो रूढि़वादी परम्परा मानकर इस त्यौहार को मनाया जा रहा है। कतिपय किसानों का कहना है कि बैल ही किसानों का धन है इसलिए इनकी पूजा करते है। भीलवाड़ा जिले के टोकरा गांव के लाल सिंह का कहना है कि पूर्व में बैलों की पूजा दीपावली के दिन ही की जाती थी। गोवर्धन नाम का एक ग्वाल था, दीपावली के दिन बैलों की पूजा के बाद बैल दौड़ और भगदड़ मच गई, उस भगदड़ में गोवर्धन ग्वाल बैलों के पैरों के कुचल जाने के कारण वह मर गया। उस गोवर्धन ग्वाल की याद में दीपावली के दूसरे दिन यह त्यौहार  मनाया जाता है। मेवाड़ क्षेत्र में इस त्यौहार को ‘‘खैंखरा’’ कहते है, हाडौती क्षेत्र में ‘‘घास भैरू’’ कहा जाता है। समान बात यह है कि बैलों की पूजा की जाती है । मगर त्यौहार को मनाने के पीछे लोगों की धारणाएं अलग-अलग है। हाड़ौती क्षेत्र में बैलों की पूजा कर एक बड़े पत्थर को रस्सियों से बांध कर बैलों से गांव के चारों तरफ घिसवाया जाता है। इसके पीछे धारणा यह है कि गांव में किसी कोई महामारी नहीं होगी व खूब बारिश होगी। 
आजकल ‘‘खैंखरा’’ त्यौहार पर बैलों की पूजा की बजाए उनपर अत्याचार किए जा रहे है। भीलवाड़ा जिले के कोशीथल गांव के किसन लाल जाट का कहना है कि ‘‘बैल हमारा धन है इसलिए इनकी पूजा करते है।’’ लेकिन वर्तमान में पूजा करने व त्यौहार मनाने का अंदाज बदल गया है। क्षेत्र में और जगहों की भांति यहां भी गुणी है, नम्बरदार व पंचों द्वारा गुणी पर कलश स्थापना व बैलों की पूजा की जाती है। लेकिन जब ये कार्यक्रम किए जा रहे होते है उसी दौरान युवा बड़े-बड़े पटाखे छोड़ना शुरू कर देते है। पटाखे जलाकर बैलों की ओर फैंके जाते है। बैलों व उनको पकड़कर खड़े लोगों के शरीर पर जाकर वे पटाखे फूटते है। बैल घबरा जाते है। कई बैल तो कांपने लगते है। इधर तो नम्बरदार बैल के तिलक कर रहे होते है कि उधर से बड़ा पटाखा उनके कान के पास आकर फूटता है, पूजा की थाली भी नीचे गिर जाती है। बैलों को थाम कर खडे़ लोगों के कपड़े तक जल जाते है। महिलाए जो त्यौहार के लिहाज से नए परिधान पहनकर यहां आती है, राॅकेट पटाखों से उनके परिधान भी जल जाते है। दर्जनभर मामले ऐसे हुए है जिनमें पटाखों से जलने के कारण महिलों को अस्पताल ले जाना पड़ा। 
मोहन लाल जाट बताते है कि लगभग एक दशक पूर्व से पटाखों का चलन बढ़ गया है। जहां पूर्व में हेलुण्ड़ी लपकने के बाद कार्यक्रम समाप्त होता था अब तो पटाखों की वजह से आफत के कारण कार्यक्रम समाप्त करना पड़ता है। या तो बैल पटाखों की बौछार से घबराकर भाग जाते है या फिर दर्शकों में से कोई जल जाता है। यहां प्रशासनिक अधिकारी भी रहते है लेकिन वह निरीह पशुओं पर पटाखों के बर्बर हमले के खिलाफ कुछ नहीं करते है।

खास बात यह है कि जलते हुए पटाखे बैलों पर फैंकने वाले अधिकतर अमीर युवा विश्व हिन्दू परिषद से जुड़े हुए है। गाय को माता मानने वाले पता नहीं क्यूं अपने भाई (बैल) पर ज्वलनशील पदार्थ फैंकते है। 

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