Thursday, January 5, 2012

आदिवासी सहरिया महिला को मिला ’’दी हॉल आफ फेम पुरस्कार 2011’’

लखन सालवी
इस साल का ‘‘दी हॉल आॅफ फेम पुरस्कार’’ बारां जिले के सहरिया आदिवासी क्षेत्र किशनगंज के भंवरगढ़ गांव की ग्यारसी बाई सहरिया को मिला है। लोगों के जीवन में वास्तविक बदलाव लाने पर दिए गए इस पुरस्कार को पाने वाली यह पहली सहरिया महिला है। क्षेत्र में समाज के हित में कार्य कर रहे जाग्रत महिला संगठन की महिला कार्यकर्ताओं के साथ उसके द्वारा इस वर्ष बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराने के लिए किए गए कार्य के लिए उसे यह पुरस्कार दिया गया है।


Gyarasi Bai Sahariya

अजीम प्रेमजी फाउण्डेशन के सहयोग से सिविल सोसायटी मैगजीन द्वारा देश के 6 राज्यों के 6 लोगों को यह पुरस्कार दिया गया है। जिनमें राजस्थान के बारां जिले की ग्यारसी बाई सहरिया भी शामिल है। दिल्ली में इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेन्टर में 30 नवम्बर को आयोजित हुए सम्मान समारोह में यह पुरस्कार दिया गया। समारोह में मुख्य अतिथि राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सदस्य एवं रैमन मैग्सैसे अवार्ड विजेता श्रीमति अरूणा राॅय ने कहा कि छोटी-छोटी जगहों पर छोटे-छोटे कार्य करते हुए बड़े बदलाव करने वाले लोग मुख्यधारा के टीवी चैनल व समाचार पत्रों में दिखाई नहीं देते है। लेकिन वे बड़े बदलाव के कार्य कर रहे है।
उल्लेखनीय है कि ग्यारसी बाई कोई 20 सालों से बारां जिले के सहरिया बाहुल्य क्षेत्र किशनगंज  व शाहबाद के गांवों में सामाजिक कार्यों में जुटी है। सन् 2002 में बने जाग्रत महिला संगठन से जुड़कर जन मुद्दों पर कार्य कर रही है। उसके द्वारा किए गए सराहनीय कार्यों की बदौलत ही उसे आज नई पहचान मिली है। लेकिन वो इस नई पहचान का दंभ नहीं भर रही है, यह उसकी सरलता की निशानी है। वो इस पुरस्कार के बारे में पूछने पर कहती है कि ‘‘बीने कांई केवे बो तो मूं भूलरी छूं, पण आ खबर छे के आच्छो काम करबा काण यो पुरस्कार दियो छे मने।’’  (उस पुरस्कार को क्या कहते है यह तो मैं भूल रही हूं पर इतना जरूर जानती हूं कि अच्छा कार्य करने पर यह पुरस्कार दिया गया है मुझे)
ग्यारसी बाई ने सूचना के अधिकार कानून को लागू करने की मांग को लेकर किए गए आंदोलनों से शुरू से ही जुड़ी रही। सूचना के अधिकार के लिए राजस्थान के ब्यावर से शुरू हुए आंदोलन सहित इसके लिए राज्य भर में हुए आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई। यहीं नहीं महानरेगा की मांग व महानरेगा के तहत ग्राम पंचायतों द्वारा करवाए जा रहे कार्यों में पारदर्शिता स्थापित करने के लिए किए गए सामाजिक अंकेक्षणों में भी भाग लिया। झालावाड़ के अकलेरा में हुए सामाजिक अंकेक्षण में भ्रष्टाचार उजागर होने से घबराए भ्रष्टाचारियों द्वारा किए गए हमलों में घायल हुई, लेकिन वो हमलों से नहीं घबाराई और अपने इरादों पर अटल रही।
जाग्रत महिला संगठन के बैनर तले उड़ीसा के नीलगिरी पहाड़ पर बसे लोगों के लिए वहां जाकर आवाज उठाई। सहरिया बाहुल्य क्षेत्र में ही बसे खैरूआ जाति को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिलवाने, सहरिया समुदाय के लोगों को महानरेगा में 100 दिन की बजाए 200 दिन का रोजगार मुहैया करवाने, शाहबाद व किशनगंज क्षेत्र को आदिवासी क्षेत्र घोषित करवाने, वन भूमि पर काबिज लोगों को वन भूमि अधिकार अधिनियम 2005 के तहत पट्टे दिलवाने के लिए जिला स्तर, राज्य स्तर व राष्ट्रीय स्तर पर मुद्दा उठाया। इसके लिए वो सोनिया गांधी, राहूल गांधी, राजस्थान के राज्यपाल व मुख्यमंत्री से भी मिली।
उल्लेखनीय है पिछले वर्ष जयपुर में स्टेच्यू सर्किल पर किए गए मजदूर हक सत्याग्रह के दौरान जाग्रत महिला संगठन ने बंधुआ मजदूरी का मुद्दा उठाया था। इस मुद्दे पर कार्य करते हुए साझे प्रयासों से अब तक 146 बंधुआ मजूदरों को मुक्त करवाया है। इस कार्य से क्षेत्र के किसानों का विरोध भी झेलना पड़ा, धमकियां भी मिली नहीं वह नहीं डरी। महिलाओं पर अत्याचार को वह सहन नहीं करती है। संगठन के साथ महिला अत्याचारों के खिलाफ पीडि़त महिलाओं का साथ देकर अत्याचारियों के खिलाफ आवाज उठाई।
ग्यारसी बाई किशनगंज तहसील के फल्दी गांव में जन्मी और पली बढ़ी। वह बताती है कि बचपन में उसके माता पिता ने उसे बताया कि उसका जन्म ग्यारस (एकादशी) को हुआ था इसलिए उसका नाम ग्यारसी रखा गया। उसकी माता का नाम पांची व पिता का नाम बिहारी था। उसके दो बड़े भाई थे, सबसे बड़े भाई रामलाल की मृत्यु हो गई। ग्यारसी के पिता एक पुत्री की इच्छा रखते थे, उसकी माता पांची ने तीसरी संतान के रूप में कन्या को जन्म दिया था लेकिन उसकी मृत्यु हो गई। उसके बाद से पिता बिहारी दुःखी रहने लगे और एक साल बाद उनकी मृत्यु हो गई। ग्यारसी का जन्म उसके पिता की मृत्यु के करीब एक माह बाद हुआ।
ग्यारसी पढ़ना चाहती थी लेकिन उसे स्कूल जाने का मौका ही नहीं मिला। उसके सबसे बड़े भाई भैरूलाल के बच्चों की देखभाल में ही वक्त गुजरता रहा। 8 साल की उम्र में उसकी शादी भंवरगढ़ गांव के बक्सु सहरिया से कर दी गई। शादी के 3-4 साल बाद उसका गौना कर दिया गया। महज 12 साल की उम्र में वह अपने ससुराल में रहने लगी।
जब वह ससुराल आई तो उसने देखा कि घर में खाने पीने को भी कुछ नहीं था। उसके जेठानी की कुछ माह पूर्व ही प्रसव के दौरान मृत्यु हो गई थी। सास तो बहुत पहले ही मर चुकी थी। खेती के लिए इंच भी जमीन नहीं थी। ससुर पुन्या सहरिया किसानों के यहां रखवाली का काम करते थे। वहीं जेठ और पति जमींदारों के यहां हाळी का काम करते थे। कुछ समय तो वह घर का काम ही करती रही। लेकिन घर में खाने को कुछ नहीं था, एक समय ही रोटी बनती थी, रोजाना शाम को पानी में गलाए गेहूं खाकर भूख बुझती थी।
उसने अपने पति को जमींदारों के यहां हाळी का काम करने से रोका और दोनों ही चूने के भट्टे पर  मजदूरी करने लगे। कोई 20 साल पहले क्षेत्र में महिला विकास पर व शिक्षा के प्रति जागरूक कर रही चारू मित्रा नाम की सामाजिक कार्यकर्ता को उसने एक बैठक में बोलते हुए देखा। असल में हुआ यूं था कि चारू मित्रा ने अपने साथियों के साथ मिलकर भंवरगढ़ गांव में एक बैठक का आयोजन किया गया था। गांव की महिलाओं को संगठित होने के लिए व शिक्षा के प्रति जागरूक करने के लिए वह बैठक आयोजित की गई थी। चारू मित्रा के एक साथी रमेश सेन ने चूने के भट्टे पर आकर सभी महिलाओं को बैठक में आने को कहा था। ग्यारसी बाई ने अपने पति बक्सु सहरिया से बैठक में जाने की इजाजत मांगी। बक्सु ने ग्यारसी को बैठक में जाने से नहीं रोका। बैठक में 5 महिलाओं का ग्रुप बनाकर जाना था। ग्यारसी के मन में बैठक में जाने की तीव्र इच्छा थी सो उसने अपनी सहेलियों को बैठक में जाने के लिए तैयार किया और चल पड़ी बैठक में भाग लेने के लिए। इस बैठक में चारू मित्रा को महिला अत्याचार, समानता का अधिकार, शिक्षा जैसे विषयों पर बोलते देखा। उसने ठान लिया कि चारू मित्रा की तरह काम करना है। भंवरगढ़ की बैठक के कुछ समय बाद ही वहां के तेजाजी के डांडे पर लोक जुम्बिश परियोजना की शुरूआत हुई। परियोजना का संचालन क्षेत्र में शिक्षा पर कार्य कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता मोतीलाल व चारू मित्रा द्वारा किया जाना था। परियोजना संचालित करने के लिए कार्यालय भवन की आवश्यकता थी। वहां भवन की स्वीकृति हुई। भवन निर्माण किया जाना तो चारू मित्रा ने महिलाओं को मिस्त्री का प्रशिक्षण देकर उनसे भवन निर्माण करवाने की सोची। उन्होंने क्षेत्र की महिलाओं को इसके लिए तैयार किया। ग्यारसी को जब इसकी जानकारी मिली तो वह भी मिस्त्री बनने के लिए तैयार हो गई। 10-10 महिलाओं के ग्रुप बनाए जाने थे, ग्यारसी ने अपने साथ और महिलाओं को जोड़ा और अपना ग्रुप बनाया। मिस्त्री का प्रशिक्षण प्राप्त किया और लोक जुम्बिश परियोजना के कार्यालय के लिए बनाए गए भवन में मिस्त्री का काम किया।
उस समय चारू मित्रा संकल्प संस्था की कार्यकर्ता थी। संकल्प संस्था द्वारा शिक्षा व महिला विकास के मुद्दे पर कार्य किया जा रहा था। इसी दरमियान शाहबाद तहसील के मामोनी गांव में स्थिति संकल्प संस्था में 5 दिवसीय महिला विकास व बालिका शिक्षा पर प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किया गया। इस प्रशिक्षण में महिलाओं को संगठित करने, महिला अत्याचार, समानता का अधिकार, अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम सहित शिक्षा के महत्व के बारे में बताते हुए बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए उन्हें शिक्षा की ओर अग्रसर करने की जानकारियां दी गई। यह प्रशिक्षण ग्यारसी के लिए वरदान साबित हुआ। उसने शिक्षा के महत्व को जाना और ठान लिया कि महिलाओं को संगठित करना है तथा बालिकाओं को शिक्षा से जोड़ना है। वह इन कार्यों में जुट गई, उसकी क्षमता का ही उदाहरण है कि हर गांव की हर समुदाय की महिलाओं को संगठित किया। बालिकाओं को शिक्षा से जोड़ा। क्षेत्र में ग्यारसी बेनजी के नाम से ख्याति मिली। उसकी सोचने समझने की क्षमता व बेझिझक अपनी बात कहने के साहस ने लोगों के दिलों पर असर किया है। हर वर्ग उसका सम्मान करता है।
अनपढ़ होते हुए उसने शाहबाद क्षेत्र में शिक्षाकर्मी स्कूलों व रात्रिशालाओं में महिलाओं व बालिकाओं को जोड़ने का कार्य किया। उसने वहां देखा कि शिक्षाकर्मी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को कपड़े व अन्य सामग्री मिलती थी। जबकि उसके घर के पास संचालित रात्रिशाला में पढ़ने वाले बच्चों को कपड़े आदि नहीं मिलते थे। उसने अपनी साथी चारू मित्रा से इस बारे में पूछा तो उन्होंने उससे कहा कि वो रात्रिशाला में पढ़ने वाले बच्चों को दिन में पढ़ने के लिए प्रेरित करेगी और अधिक बच्चों को जोड़ेगी तो उन बच्चों को भी सुविधाएं मिलेगी। तब ग्यारसी ने अपने मोहल्ले की महिलाओं को इसके बारे में बताया व उन्हें संगठित कर उनके सहयोग से लकड़ी की एक टापरी बनाई। रात्रिशाला में पढ़ाने वाले अध्यापक गोबरी लाल सहरिया को उस टापरी में बच्चों को पढ़ाने के लिए कहा। सभी महिलाएं अपने बच्चे-बच्चियों को पढ़ने भेजने लगी। तब ग्यारसी ने चारू मित्रा से वहां पढ़ रहे बच्चों के लिए सुविधाएं मांगी। चारू मित्रा ने प्रयास कर टापरी में संचालित स्कूल को शिक्षाकर्मी स्कूल का दर्जा दिलवाया तथा बाद में स्कूल के लिए भवन भी बनाया गया, सिंचाई काॅलोनी के समीप वह शिक्षाकर्मी स्कूल आज भी संचालित है।
ज्ञातव्य है कि अकाल के दौरान क्षेत्र में भूख से हुई मौतों के बाद सन् 2002 में 8 मई महिला दिवस के दिन संगठित महिलाओं ने जाग्रत महिला संगठन बनाया गया था। संकल्प संस्था के मोतीलाल कहते है कि ग्यारसी जैसी ईमानदार, अहंकार रहित व काम के प्रति समर्पित महिला और नहीं देखी, वह स्वाभिमानी है तथा निडरता सामाजिक बदलाव के लिए संघर्ष कर रही है।
वहीं ग्यारसी बाई के पति बक्सु सहरिया कहते है कि हमें तो नीच और गंवार समझा जाता था, जब ग्यारसी ने पहली बार मुझसे चारू मित्रा की बैठक में जाने की इजाजत चाही तो मैंनें उसे जाने दिया। घर की चारदिवारी में बंद रहने वाली महिला दूनियादारी को नहीं समझ पाती, वो चारदिवारी से बाहर निकली तो आज मुझसे भी अधिक जानकार है। उसे जो पुरस्कार मिला है, यह जानकर मुझे बहुत खुशी हुई है। बहरहाल ग्यारसी बाई संगठन की महिला साथियों के साथ महिला अत्याचार के विरोध में खड़ी है तथा जनहित के मुद्दों को हर स्तर पर उठा रही है। क्षेत्र के हर वर्ग के लोगों को ग्यारसी पर नाज है।

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