Wednesday, March 19, 2014

नानी का प्यार अमर रहे

केवलूपोश कमरे के एक कोने में लकड़ी के छोटे दरवाजे वाली कोठी (भण्डार गृह), दूसरे कोने में मिट्टी का चुल्हा, तीसरे कोने में दलिया बनाने की घट्टी और चैथे कोने की दिवार में बनी ताक (आलमारी) में नानी की लोहे की पेटी और उसी दिवार पर नानी-नानी की तस्वीर व साथ में उसकी बहिन की बेटी व दामाद की एक तस्वीर टंगी हुई है। उन दो तस्वीरों के पास एक हाथ पंखा लटका हुआ है। नानी के घर के एक कमरे की यही दशा है। मैं 20 साल पहले से ये दशा देखता आ रहा हूं, कुछ भी नहीं बदला है नानी के इस कमरे में, ना कमरे की सूरत बदली, ना नानी का व्यवहार ना हमारे प्रति उसका प्यार।
हम 5 भाई बहिन है। सबसे बड़ा मैं, मेरे से छोटी एक बहिन, उससे छोटी एक बहिन, उससे छोटी एक और बहिन और उससे छोटा एक भाई। हम सभी नानी के प्यारे रहे है। मेरे और मुझ से दो छोटी बहिनों के संतानें है। अब नानी हमसे ज्यादा हमारी संतानों को प्यार करने लगी हैं। वह उन्हें बहुत दुलारती है, उनका खूब ख्याल करती है। 
इस बार होली पर मेरी सभी बहिनें ससुराल से आई हुई थी। होली के दूसरे दिन बोली की नानी के घर जाना है। मैं भी कई बरसों से गया नहीं था तो जाने का मन बना लिया। अपनी कार में 4 बड़ी सवारियों के साथ 5 छोटी सवारियों को ठूंसा, भला हो हुंडई कम्पनी वाले का जिसने सेंट्रो जैसी मजबूत कार बनाई। हम नानी के पास पहुंचे। सभी बच्चे नानी के इर्दगिर्द बैठ गए, नानी बीच में। बातों का सिलसिला आरम्भ हो गया। मैं फिजीकल रूप से तो वहीं था लेकिन मन मेरा जीवन संगिनी में अटका हुआ था। आंखों के सामने उसका चेहरा बार-बार आ रहा था, कार में जगह नहीं थी इस कारण वह नहीं आ पाई। मैंनें घर से रवाना होते समय उसकी मनःस्थिति भांप ली थी लेकिन क्या कर सकता था ? कोई उपाय नहीं था। मैं नानी के घर की पोळ में बैठा हुआ था। अचानक उठा और उस कमरे में गया जिसमें बचपन में मैंनें कई रातें गुजारी थी। 
कमरे में घुसते ही सामने की दिवार में नजर पड़ी। कुछ नहीं बदला था वहां, 20 साल में कुछ भी नवाचार नहीं हुआ। दिवार पर दो तस्वीरों के पास एक हाथ पंखा लटक रहा था। दिवार में बनी हुई एक परमानेंट अलमारी में नानी की लोहे की पेटी रखी हुई थी
वह आज भी मुझे ‘‘भाया’’ कहकर बुलाती है और 20 साल पहले भी ‘‘भाया’’ कहकर बुलाती थी। नानी की उम्र करीब 80 वर्ष है। उसने अपने में जीवन बहुत मेहनत की। नाना जी स्व. श्री उदयराम जी देवनारायण भगवान के मंदिर के पुजारी थे। गांव वाले नाना जी को ‘‘भोपाजी’’ कहते थे और नानी जी को ‘‘भोपी मां’’, आज भी नानी देवरिया में ‘‘भोपी मां’’ के नाम से ही जानी जाती है।  
ननिहाल देवरिया गांव, हमारे गांव से 5 किलोमीटर दूर ही है और हमारे खेतों वाले रास्ते से जाया जाए तो महज 3 किलोमीटर ही पड़ता है। बचपन में मैं महिने में एक-दो बार नानी के पास चला जाया करता था, नानी से 10-20 रुपए जो मिलते थे। हालांकि कमी किसी बात की हमारे घर में भी नहीं थी, पिताजी ने जीवन में कभी घी नहीं खाया लेकिन हमारे लिए दुधारू गाय अथवा भैंसें हमेशा पाली। दुध, घी, छाछ, राबड़ी की कभी कमी नहीं आने दी। बावजूद हमें पिताजी से बहुत डर लगता था, किसी काम में कुछ गलती हो जाने पर पिताजी बहुत डांटते थे, वहीं मम्मी से तो ओर अधिक डर रहता था। गलती करने पर मम्मी डांटती नहीं, मारती थी वो भी लकड़ी के डण्डे से (गेती, कुल्हाड़ी या फावड़े के बेसे से)। तो भय के मारे मम्मी-पाप्पा का हमारे प्रति सारा प्रेम गौण हो गया। बस एक मात्र नानी ही थी, जिस पर हमारा सारा जोर चलता था। हमारे सारे नाटक नानी को देखने-सुनने पड़ते, हमारी सारी मांगे नानी को ही पूरी करनी पड़ती थी, वैसे मांगे भी बड़ी से बड़ी 10-20 रुपए तक ही सीमित थी। 
आज नानी के कमरे को देखते-देखते मैं बचपन में चला गया, ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे 10 साल का लखन नानी के घर आया है। कमरे के कोने में बनी हुई कोठी आज भी वैसी की वैसी है, जिसमें नानी महीने भर की अपनी यात्रा के दौरान जुटाई गई सामग्री को रखती है। यथा कहीं से मिठाई आई तो उसे कोठी में रखेगी, कहीं से फल मिले तो उन्हें भी कोठी में रखेगी, कहीं मंदिर से प्रसाद मिला तो उसे भी कोठी में रखेगी और फिर उस दिन, जिस दिन वह हमारे घर आती है तो कोठी में से सारी सामग्री निकाल कर ले आती है।
आज नानी ने सबको रूकने के लिए कहा लेकिन बहिनों ने व्रत किए थे और वे वापस कोशीथल जाना चाहती थी, मैं चाह रहा था कि आज की रात नानी के घर रूका जाए लेकिन मनमसोस कर वापस रवाना होना पड़ा। 
उससे पहले नानी ने अपने सब नवासे-नवासियों को खर्च के लिए 10-10 रुपए दिए। उसके पास इतने खुल्ले रुपए नहीं थे। मैं वहीं था इसलिए मुझसे मांग लिए, वरना मोहल्ले में जाती, खुल्ले लेकर आती और सब को बांटती।
नानी से रुपए पाकर बच्चे बड़े खुश हुए . . . नानी का प्यार अमर रहे