Tuesday, February 18, 2020

न्यूजरूम में क्या होता है ? समझने के लिए पढ़िए ‘‘न्यूजमैन एट वर्क’’

(लेखक: लक्ष्मी प्रसाद पंत)
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प्रतिक्रिया : लखन सालवी -
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जब सोशल मीडिया के माध्यम से मुझे पहली बार पता चला कि दैनिक भास्कर के राजस्थान के एडिटर लक्ष्मी प्रसाद पंत जी की लिखी एक किताब ‘‘Newsman@work’’ का विमोचन किया गया है, तब से ही एक युवा पढ़ाकू व लिखाकू पत्रकार होने के नाते मैं इस किताब को पढ़ने के लिए उतावला हो गया। उतावलेपन के दो कारण थे। 

पहला कारण - लक्ष्मी प्रसाद पंत जी की लिखी किताब ‘‘हिन्दुस्तान का कब्रिस्तान’’ में मैं उनकी लेखनी से रूबरू हुआ था, जिसमें उन्होंने केदारनाथ त्रासदी की तथ्यात्मक, सधी हुई व मार्मिक रिपोर्ट पेश की थी। मुझे उम्मीद थी कि न्यूजमैन एट वर्क में भी मुझे वैसी लेखनी पढ़ने को मिलेगी। 
दूसरा कारण - मैं भी एक ग्रामीण पत्रकार हूं। लक्ष्मी प्रसाद पंत जी की किताब का टाइटल है ‘‘ न्यूजमैन @ वर्क’’। इस टाइटल को पढ़कर लगा कि इसमें न्यूज रिपोर्टरर्स के बारे में पढ़ने को मिलेगा।   

तो कुल जमा इन दो कारणों के चलते मैं इस किताब को पढ़ने के लिए उत्साहित था। विमोचन के कुछ दिनों बाद यह बुक अमेजन पर उपलब्ध हो पाई। जैसे ही पता चला कि अमेजन से किताब खरीदी जा सकती है तो तुरंत किताब बुक की और अंततः दो सप्ताहों के अंत में यह किताब मेरे हाथों में पहुंच ही गई। 17 फरवरी 2020 की रात 11 बजे बाद इस पुस्तक को पढ़ना शुरू किया और एक ही बार में इस पुस्तक को पढ़ भी लिया।

किताब के फ्रेंट पेज के नीचे लिखा है खबरों के जन्मस्थान में आपका स्वागत है। लगता है किताब का नाम न्यूजरूम रखने की बजाए जानबूझ कर न्यूजमैन एट वर्क रखा गया।

किताब के बेक कवर पेज पर लिखा है कि न्यूजमैन एट वर्क लक्ष्मी प्रसाद पंत के 20 वर्ष के न्यूजरूम जीवन में सामने आयी सच्ची घटनाओं का एक दिल छूने वाला दस्तावेज ही है। मेरा पूर्वाग्रह तो यही था कि पंत जी भी एक एडिटर है दूसरे एडिटरर्स की तरह। हुक्म जाड़ने वालों की तरह। लेकिन पंत जी को एक पत्रकार समझकर भी इस किताब को पढ़ना चाहिए। 

एडिटर व लेखक पंत जी ने इस किताब में बताया है कि न्यूज रूम में आने वाली खबरों का पोस्टमार्टम कैसे किया जाता है। पोस्टमार्टम करते समय न्यूजमैन के हाथ कांपने लगते है, दिल की धड़कनें तेज रफ्तार पकड़ लेती है, डर लगने लगता है, गुस्सा आने लगता है और बाद में इन सबकी परिणीति एक मारक हेडलाइन व तथ्यों से गुंथी भावुक कर देने वाली खबर हमारे हाथों में होती है। 
किताब में कुल 21 कहानियां है। दरअसल ये कहानियां 21 खबरों पर ही लिखी गई है। आॅलमोस्ट ये सभी खबरें दैनिक भास्कर में छप चुकी है और इन पोपूलर खबरों को हम पहले पढ़ भी चुके है। अब आप कहेंगे कि फिर इस बुक में नया क्या है ? 
बताता चलूं कि इस बुक में नया ये है कि ये खबरें, पोपूलर खबरें कैसे बनी ? 

इस बुक में बताया है कि खबरें किस रूप में न्यूज रूम में आई  और फिर रात में न्यूज रूम में क्या कुछ हुआ, कैसे कोई खबर लीड खबर के रूप में सुबह हम पाठकों के हाथों में आकर पोपूलर बन गई। कैसे अखबार के कर्मचारी (संपादक, संवाददाता, डेस्ट प्रभारी, प्रुुफ रीडर, एड शेड्यूएल और सर्कुलेशन) एक-एक खबर के लिए काम करते है।  

इस किताब के कुल 148 पेज है। 17वें पेज से लेकर आखिरी पेज को पढ़ते हुए आपको लगेगा कि किताब का नाम न्यूजमैन की बजाए न्यूजरूम होना चाहिए था। यह मेरा पूर्वाग्रह हो सकता है कि मैं न्यूजमैन को महज एक संवाददाता के रूप में देखता हूं। इसलिए मैं इस बुक में न्यूजमैन को ढूंढ़ता रहा और मुझे वो केवल 3 कहानियों में ही दिखा और सच कहूं तो पाठक के तौर पर उन 3 कहानियों को पढ़ने में अन्य कहानियों की बजाए अधिक दिलचस्पी रही। 

रोजाना सुबह जो अखबार हमारे हाथ में आता है, उसका जन्म कैसे होता है, उससे ये किताब आपको अवगत कराती है। हम सभी कोई ना कोई अखबार जरूर पढ़ते है, किसी न किसी पत्रकार को भी जानते है, हम यह भी जानते है कि हमारे आस-पास घटने वाली घटनाओं की सूचनाएं खबर के रूप में अखबार में हमें मिलती है। हम ये भी जानते है कि कुछ खबरें पहले पेज के उपर तो कुछ खबरें पहले पेज के नीचे के हिस्से में छपती है। कुछ खबरें क्रमशः पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे . . . पेज पर छपती है। कुछ पेजों पर विज्ञापन छपते है। आखिर खबरें या विज्ञापन अखबार के किस पन्ने पर और किस जगह पर छपने है, ये कैसे तय होता है ? अगर इन सवालों के जवाब भी आप जानना चाहते है तो आपको ये किताब पढ़नी चाहिए। 21 खबरों की 21 कहानियों को पढ़ने पर आपको अपने सवालों के जवाब भी मिल जायेंगे।
इस किताब के पेज 7 से 12 में लेखक ने इस किताब के उद्देश्य के बारे में बताया है। आमतौर पर आम जनता तक पत्रकार की हत्या, पत्रकार पर हमले और पत्रकार पर आरोप की खबरें तो पहुंच जाती है लेकिन एक खबर के तथ्य जुटाने, खबर लिखने और खबर को पाठक तक पहुंचाने के लिए पत्रकार कितने तनाव व सदमें से गुजरता है, कितनी चिंता उसे होती है और कितना गुस्सा आता है। इन सब के बारे में लेखक ने अवगत कराया है। 

अपनी किताब में लेखक ने कई चिंतकों व वरिष्ठ पत्रकारों के वक्तव्यों को स्थान दिया है। 
जैसे - 
‘‘अगर लिखते वक्त पत्रकार की आंखों में आंसू नहीं है तो पढ़ते वक्त पाठकों की आंखें भी सूखी ही रहेंगी।’’ - राॅबर्ट फ्राॅस्ट
‘‘पत्रकारिता कभी खामोश नहीं हो सकती, यही उसकी सबसे बड़ी खूबी और सबसे बड़ी कमी भी है।’’ - हेनरी एनातोले
‘‘पत्रकारिता आपको मार डालेगी लेकिन जब तक आप इसे करेंगे यह आपको जीवित रखेगी।’’ - होरेस ग्रीले-एडिटर, न्यूयार्क ट्रिब्यून

हर कहानी के इंट्रों में मारक बातें लिखी गई है। हर कहानी का इंट्रों जोरदार है वहीं हर कहानी का अंत एक संदेश भी देता है। वे कहते है - जिम्मेदारी पत्रकारिता का सच्चा रोजनामचा है। पंत जी आगाह भी करते है। कोटा के कोचिंग बाजार में कई मासूम आत्महत्या कर चुके है। कई सुसाइट नोट पढ़ चुके पंत जी लिखते है कि अपने आस-पास देखिए कोई अपना तो नहीं जो ऐसी ही तकलीफ से गुजर रहा हो। खबरें भी सीखने की पाठशालाएं ही हैं।

शोक संदेशों के क्लासिफाइड एड के प्रुफ रीड़र प्रफुल्ल के बारे में भी पंत जी ने पूरी एक कहानी छापी है। वाकई में अखबार को तैयार करने में कई लोगांे का योगदान रहता है। प्रुफ रीडर का भी महत्वपूर्ण रोल होता है। क्लासिफाइड पेज पर शोक संदेश, उठावणे व श्रद्धांजलि के सैकड़ों विज्ञापन होते है। इनकी प्रुप रीड़िंग का कार्य भी अत्यंत महत्वपूर्ण काम है। जरा सोच के देखिए कि बारहों मास आपको ऐसे ही संदेशों को पढ़ना और उनमें सुधार करने का कार्य सौंपा जाए तो क्या होगा ? पंत जी संवेदनशील व्यक्ति है, उन्होंने प्रुफ रीडर की स्थिति से भी हमें अवगत कराया है। पंत जी के सुझाव को मैं अमल में लाऊंगा। मैं जल्दी ही प्रुफ रीडर प्रफुल्ल जी से मिलूंगा। 

20वीं कहानी मौताणा प्रथा से जुड़ी है। उदयपुर जिले के कोटड़ा क्षेत्र के एक गांव में एक व्यक्ति का शव मिला था। उस व्यक्ति के गांव वालों ने मौताणा की मांग करते हुए शव को आंगनबाड़ी केंद्र के बाहर लटका दिया। वो शव डेढ़ साल तक लटका रहा। पंचों को मौताणा नहीं मिला इसलिए लाश लटकी रही। यह खबर कोटड़ा के दैनिक भास्कर के संवाददाता शाहिद खान के द्वारा जयपुर दैनिक भास्कर के न्यूजरूम में पहुंची। कहानी में पंत जी ने लिखा कि लाश डेढ़ साल तक लटकी रही और इसकी खबर 9 माह बाद जयपुर के न्यूज रूम में पहुंची। यहां पाठक का सिर थोड़ा चकरा सकता कि यह कैसे ? पंत जी लिखते है कि खबर के लेट हो जाने के पर पत्रकार शाहिद खान से पूछा गया तो उसने बेझिझक कहा कि - सर यहां तो ये सब चलता रहता है, चूंकि नौ माह हो चुके है इसलिए अब खबर भेजी गई है। एक-दो माह की तो भेजते ही नहीं है। 
चूंकि मैं स्वयं कोटड़ा के समीपवर्ती क्षेत्र में ही रहता हूं इसलिए जानता हूं कि शाहिद खान बहुत ही एक्टिव व प्रोग्रेसिव जर्नलिस्ट है। उनके द्वारा यह कह देना कि शव एक-दो माह पूर्व ही लटकाया होता तो वो खबर भेजते ही नहीं ! ये बात गले नहीं उतर रही है। उन्होंने ऐसा क्यों कहा ? वो ही जाने, मैं तो जानता हूं  कि मरने, मारने और शव लटकाने की खबर तो दूर, मौताणा मांगने की रणनीति बनाए जाने की खबर भी सबसे पहले शाहिद भाई तक पहुंच जाती है। 
मैं यहां यह भी बताना चाहता हूं कि साल में इक्का-दूक्का मौताणा के लिए चढ़ोतरे की घटनाएं होती रहती है। गत वर्ष सिरोही से आए आदिवासी समाज के लोगों ने पुलिस पर भी हमला कर दिया था। लेकिन किसी के शव को लटका दिया जाता हो ऐसी खबरें इतनी भी नहीं है कि उनके बारे में ऐसा कह दिया जाए।

हो सकता है कि पत्रकारों को यह किताब ज्यादा रास ना आए या कुछ नया ना लगे लेकिन आम लोगों के लिए यह खास है। उनके लिए निश्चित ही इस किताब में नई जानकारियां है। खबरें तो आप रोज पढ़ते है, इस किताब में खबरों की कहानियां भी पढ़िए . . . 

Laxmi Prasad Pant Anand Choudhary Shahid Khan Bhanwar Meghwanshi