Friday, February 10, 2012

अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे


चार-चार मुकदमें दर्ज है इस पर और ये यूथ कांग्रेस का लोकसभा बारां-झालावाड़ महासचिव भी है। राहुल गांधी की यूथ बिग्रेड़ के इस जाबांज सिपाही ने पिछले दिनों दूसरा दशक परियोजना नाम की संस्था के खिलाफ भी साजिस की थी। बारां जिले के भंवरगढ़ थाने में इस आशय की रिपोर्ट दी गई थी। हालांकि भंवरगढ़ थाने से अभी तक जांच पूरी नहीं की गई है। लेकिन क्षेत्र के लोगों के सामने उसकी छवि स्पष्ट होती जा रही है। 
जसविन्दर साबी अपनी रिवाल्वर का लायसेंस बनवाना चाहता है, पर क्रिमीनल रिकार्ड के कारण उसका लायसेंस नहीं बन पा रहा है। केलवाड़ा थाना क्षेत्र का निवासी है साबी, केलवाड़ा थानाधिकारी के बारे में कल परसों अखबरों में खबरें छपी थी कि उन्होंने वन भूमि पर कब्जा कर रखा है। उसके एक दिन पहले जसविन्दर सिंह साबी ने केलवाड़ा थानाधिकारी पर प्रताडि़त करने आरोप लगाते हुए आईजी (कोटा रेंज) को ज्ञापन दिया था। 
केलवाड़ा थानाधिकारी पर प्रताडि़त करने आरोप लगाना
आत्महत्या करने की धमकी देते हुए आईजी (कोटा रेंज) को ज्ञापन देना
केलवाड़ा थानाधिकारी द्वारा वन भूमि पर अतिक्रमण करने के समाचारों का प्रकाशित होना
और कल करीबन डेढ़ माह पूर्व के एक मामले में जसविन्दर सिंह साबी को गिरफ्तार कर लेना . . . ऐसा प्रतीत होता है कि थानाधिकारी से वो अपनी दादागिरी के बलबूते से लायसेंस के लिए अनुशंषा करवाना चाहता था।
जानकार सूत्रों से ज्ञात हुआ कि जसविन्दर सिंह साबी से कई लोग परेशान थे, कहावत चरितार्थ हो रही है - अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे। अब देखना यह है कि किसी कांग्रेस आलाकमान के इशारे पर उसके खिलाफ हो रही जांच को प्रभावित किया जाता है या नहीं . . . बहरहाल साबी के सिर पर इन दिनों कोटा के बड़े साहब का हाथ है।

Thursday, February 9, 2012

स्वाभिमानी व मजबूत इराद से बदलाव की बयार


पीढी दर पीढ़ी बंधुआ मजदूरी कर रहे लोगों में से कुछेक पिछले साल मुक्त हुए और अब वे संगठित हुए हो रहे है, जागरूकता का संचार उनमें देखा जा सकता है और वे अपनी आर्थिक स्थिति को भी मजबूत कर रहे है। जमींदार जो कि इन्हें गुलाम बनाकर जबरन काम करवना चाहते है, लगातार इन्हें प्रताडि़त करने व बंधुआ मजदूरी के मजबूर करने के प्रयास कर रहे है। 
मैं बात कर रहा हूं मध्यप्रदेश सीमा से सटे राजस्थान प्रांत के बारां जिले के सूण्डा चैनपुरिया गांव के उन सहरिया परिवारों के लोगों की जो गत वर्ष बंधुआ मजदूरी से मुक्त हुए थे। देश की आजादी के बारे में तो वो कुछ जानते नहीं है लेकिन हां आजादी के मायने वो भंली भांति बता सकते है। आजादी और गुलामी के अन्तर को उनसे बेहतर भला कौन बता सकता है।
विदित रहे है कि बारां जिले के किशनगंज व शाहबाद विकास खंड सहरिया (आदिवासी जनजाति) बाहुल्य क्षेत्र है। इस समुदाय के लोग खेती के कार्यों में निपुण है, पर इनके पास आजीविका के लिए संसाधनों का भारी टोटा है इसलिए अमूमन इस जनजाति के लोग जमींदारों के यहां एडवांस राशि लेकर हाळी (यहां बंधुआ मजदूरी) का काम करने लगते है। पिछले वर्ष इस क्षेत्र में वंचित वर्ग के उत्थान के लिए कार्य कर रहे स्वयंसेवी संगठन दूसरा दशक परियोजना, संकल्प संस्था व जाग्रत महिला संगठन के संयुक्त प्रयासों से इस क्षेत्र में कार्य कर रहे करीबन 150 बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराया गया था। 
मजबूत संगठन और आर्थिक व खाद्य सुरक्षा का बंदोबस्त
सुण्डा चैनपुरिया गांव के बंधुआ मजदूरी से मुक्त हुए लोग सामाजिक बदलाव की न केवल बात कर रहे है बल्कि पूर जोर कोशिशें कर रहे है। उन लोगों ने बंधुआ मजदूरी से मुक्त होकर महानरेगा के तहत कार्य करना आरंभ किया। उन सभी के 200 दिन कुछ ही दिनों में पूरे हो जाएंगे। (उल्लेखनीय है बंधुआ मजदूरी का मामले सामने आने के बाद राजस्थान सरकार ने सहरिया समुदाय के लोगों के लिए अतिरिक्त 100 दिन का कार्य मुहैया करने की घोषणा यह मानते हुए की थी कि इस समुदाय के लोग रोजगार के अभाव में बंधुआ मजदूरी करने लगते है।) कई लोग खुली मजदूरी भी कर रहे है। अब वो अपनी मर्जी का काम कर पा रहे है। साथ ही उन्हें अपनी आगे की पीढ़ी की भी चिंता है, इसलिए वो सामाजिक बदलाव के कार्य भी साथ-साथ कर रहे है।
ये लोग जब बंधुआ मजदूरी से मुक्त हुए थे जब इनके पास परिवार के भरण पोषण के लिए कुछ नहीं था, डर था कि कहीं जमींदार वापस पकड़ कर नहीं ले जाए इसलिए वे खुली मजूदरी करने भी नहीं जा रहे थे। उस दौरान जाग्रत महिला संगठन की महिला कार्यकर्ताओं ने उन्हें स्वयं सहायता समूह के बारे में जानकारी दी। उन्हें स्वयं सहायता समूह बनाने का सुझाव समझ में आया और उन्होंने अपने 6 स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) बनाए। इनमें 3 ग्रुप महिलाओं के है तथा 3 ग्रुप पुरूषों के है। प्रत्येक ग्रुप में 10-10 सदस्य है। इन ग्रुपों के सदस्य प्रतिमाह एक बैठक का आयोजन करते है और गु्रप में प्रत्येक सदस्य 100-100 रुपए जमा करवाता है। सभी ग्रुपों के बैंक खाते खुलवाए गए, प्राप्त होने वाली राषि बैंक में जमा करवाई जाती है। राशि का भुगतान चैक के माध्यम से किया जाता है, जिस पर ग्रुप के सचिव व कोषाध्यक्ष के हस्ताक्षर होते है। 
इसी के साथ एक अनाज बैंक (ग्रेन बैंक) भी बनाया जा रहा है। इन सभी ग्रुपों के सदस्य प्रतिमाह एक-एक किलो अनाज भी इक्ट्ठा करते है। अनाज को रखने के लिए दो कमरे बनाए जा रहे है। जिन्हें ग्रेन बैंक का नाम दिया गया है। इन कमरों की साइज 17ग9 व 10ग9 है। अपनी बस्ती के बीच जब ये लोग ग्रेन बैंक का निर्माण करने लगे तो जमींदारों की शिकायत पर वन विभाग के अधिकारी वहां पहूंच गए और निर्माण कार्य बंद करवा दिया। लोगों ने जाग्रत महिला संगठन की कार्यकर्ताओं को बताया कि यह भूमि वन विभाग की नहीं है। असल में इस गांव के वन भूमि पर बसे होने को लेकर पूर्व में विवाद हुआ था तब जांच की गई जिसमें गांव की भूमि राजस्व रिकार्ड में दर्ज पाई गई थी। जानकारी लेने के बाद जाग्रत महिला संगठन की कार्यकर्ताओं ने जिलाधीश को इस मामले से अवगत कराया। काफी दबाव बनाने के बाद में जब भूमि की पैमाइश की गई तो पाया कि वह भूमि वन विभाग की है ही नहीं। जमींदार वन विभाग के अधिकारियों से मिलकर ग्रेन बैंक बनाने की योजना को निष्फल करना चाहते थे। लेकिन जागरूकता व बुलन्द हौसलों के आगे वन विभाग के अधिकारियों को मुंह की खानी पड़ी और निर्माण कार्य पर लगाई रोक को हटानी पड़ी। वर्तमान में निर्माण कार्य चल रहा है। सूण्डा के बाबू लाल सहरिया ने बताया कि सभी ग्रुपों के सदस्यों के परिवारजन ग्रेन बैंक के निर्माण में श्रमदान कर रहे है। जानकारी के अनुसार इन लोगों ने श्रमदान कर रेत व पत्थर जुटाएं, श्रमदान कर नींवे खोदी और निर्माण कार्य में भी श्रमदान कर रहे है। ग्रेन बैंक के निर्माण में आवश्यक अन्य सामग्री के लिए जाग्रत महिला संगठन द्वारा खर्च किया जा रहा है।  
यूं तो कई गांवों के लोग बंधुआ मजूदरी से मुक्त हुए लेकिन सूण्डा चैनपुरिया गांव के लोग जो बंधुआ मजदूरी से मुक्त हुए उन्होंने बंधुआ मजदूरी रूपी रोग का सदा के लिए उपचार कर लिया है। इनके लिए आर्थिक सुरक्षा के लिए स्वयं सहायता समूह की योजना बहुत ही प्रभावशाली रही है। अब सूण्डा चैनपुरिया गांव के लोग आर्थिक रूप से सशक्त है। उनके बैंक खातों में रुपए है। जिस किसी को रुपयों की आवश्यकता पड़ रही है वो ऋण ले रहा है। यह ऋण अल्प ब्याज पर ग्रुप के सदस्यों को दिया जा रहा है। खाद्य सुरक्षा के लिए उन्होंने अपने स्तर पर बेहतर उपाय कर लिया है। उनके पास स्वयं का ग्रेन बैंक है जिससे वो आवश्यकतानुसार अनाज उधार ले लेते है। 10 किलो गेहूं लेने पर 11 किलो गेहूं जमा करवाते है और एक-एक पैसे का हिसाब रखते है। 
सामाजिक सरोकारों से नाता रखने वालों ने की मदद
बंधुआ मजदूरी से मुक्त हुए लोगों को मुक्त कराने के लिए व मुक्त होने के तुरंत बाद उनके भरण पोषण के लिए आर्थिक व्यवस्था की अत्यंत आवश्यकता थी। वैसे बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराने के लिए सर्वे कराना व बंधुआ मुक्त कराकर उनके पुर्नवास की व्यवस्था की जिम्मेदारी सरकार की है लेकिन देखा जा रहा था कि बंधुआ मजदूरों के प्रति स्थानीय प्रशासन व सरकार दोनों ही में संवेदनहीनता थी और है। तब सामाजिक कार्यकर्ता मोतीलाल ने वंचित वर्ग के प्रति सहानुभूति रखने वाले लोगों से बंधुआ मजदूरों हेतु व्यवस्था के लिए आर्थिक सहयोग की अपील की। संगठन से जुड़े लोगों ने अपने मासिक वेतन में से अल्प राशि बंधुआ श्रमिकों के उत्थान के लिए अनुदान में दी। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सदस्य अनु आगा ने 6 लाख रुपए का अनुदान दिया। जिसका उपयोग बंधुआ मजदूरों के हित में जाग्रत महिला संगठन द्वारा किया जा रहा है। उसी राशि में से बंधुआ मजदूरी से मुक्त होने के तुरंत बाद परिवार के भरण पोषण के लिए खाद्य सामग्री की आवश्यकता पड़ी तब उन्हें खाद्य सामग्री और खर्च के लिए कुछ रुपए भी दिए गए।
सरकार व प्रशासन की असंवेदनशीलता
सरकार ने घोषणा की थी कि क्षेत्र में व्याप्त बंधुआ मजदूरी का सर्वे कराकर बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराया जाएगा, जो लोग बंधुआ मजदूरी से मुक्त हुए है उनके लिए इकलेरा सागर गांव में आवासीय काॅलोनी का निर्माण किया जाएगा। अपनी घोषणाओं को पूरा करना तो दूर सरकार ने बंधुआ श्रम उत्सादन अधिनियम की पालना भी नहीं की है। सूण्डा चैनपुरिया गांव के 16 बंधुआ मजदूरों को मुक्त करा कर उन्हें बंधुआ श्रम विमुक्ति प्रमाण पत्र तो दे दिए लेकिन अभी तक उन्हें सहायता राशि व उनके पुर्नवास की व्यवस्था नहीं की है। ऐसे ही कई लोग है जो बंधुआ मजदूरी छोड़कर भाग आए है लेकिन वो सरकार की उपेक्षा के शिकार है। 
महानरेगा के तहत इन्हें 200 दिन का रोजगार तो मुहैया करवाया जा रहा है लेकिन समय पर भुगतान नहीं हो रहा है। महानरेगा के कार्मिक हड़ताल पर है, सूण्डा के कई मजदूरों का 3 मस्टरोल का भुगतान बकाया है यानि उन्होंने 45 दिन काम कर लिया लेकिन मेहनताना नहीं मिला। आर्थिक तंगी से जुझते देखा और उससे भी अधिक स्वाभिमानता से जीते देखा तो अमेरिका से आए एक समाज सेवक ने उन्हें 4000 रुपए का आर्थिक सहयोग दिया। क्षेत्र में कार्य कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता मोती लाल ने 2000 रुपए अपनी ओर से मिलाकर सभी 6 ग्रुप के खातों में एक-एक हजार रुपए जमा करवा दिए। पर सरकार के ऐसे रैवेय से जाहिर होता है कि उसे इनकी कोई परवाह नहीं।
गड्ढ़े से पानी निकालती महिलाएं व बच्चे
सूण्डा चैनपुरिया के बाशिंदों को पेयजल की समस्या का सामना करना पड़ रहा है। कोई कोस भर दूर एक बड़े गढ्ढे में इक्कट्ठा हुए वर्षा जल को पीकर जी रहे है। फिलहाल प्रशासन ने उनके लिए पेयजल के कोई बंदोबस्त नहीं किए है। 
देश आजाद हुए 6 दशक बीत गए लेकिन ये लोग असली मायने में अब आजाद हुए है। एक वर्ग विशेष व जमींदारों को यह नहीं भा रहा है। वो अपने गुलामों को मुक्त होते नहीं देख पा रहे है और मुक्त हुए, मुक्ति का प्रयास कर रहे गुलामों व गुलामों की मदद कर रहे लोगों को पछाड़ने के भरसक प्रयास कर रहे है। लेकिन-

तिनकों को तिनकें ही दे रहे है सहारा, 

दरख्तों की तो पत्तियों के हिलने से ही जड़े उखड़ रही है।

लेकिन हम हिम्मत ना हारेंगे, 

दो गज जमीं में उतरेंगे, शाखाओं को और मजबूत करेंगे।

फिर, हम ना तो उखड़ पाएंगे 

और ना ही किसी शमशीर की धार हमें काट पाएंगी । 

‘‘लखन हैरान’’

हम हिम्मत ना हारेंगे





तिनकों को तिनकें ही दे रहे है सहारा,
दरख्तों की तो पत्तियों के हिलने से ही जड़े उखड़ रही है।
लेकिन हम हिम्मत ना हारेंगे,
दो गज जमीं में उतरेंगे, शाखाओं को और मजबूत करेंगे।
फिर, हम ना तो उखड़ पाएंगे
और ना ही किसी शमशीर की धार हमें काट पाएंगी . . .

‘‘लखन हैरान’’


Tuesday, February 7, 2012

जैसी करनी वैसी भरनी


यूथ कांग्रेस के लोकसभा महासचिव (बारां-झालावाड़) जसविन्दर सिंह साबी की दुर्दशा, 
अब दे रहा है आत्महत्या की धमकी, पुलिस को चाहिए कि उसे गिरफ्तार करें...
इन जनाब के बारे में अधिक जानकारी के लिए इस link पर click करें...http://lakhansalvi.blogspot.in/2012_01_01_archive.html और पढ़े..
सामाजिक सरोकार बनाम सत्ता और मीडिया


Sunday, February 5, 2012

झीनी-झीनी बीनी चदरिया - (Kabir)


झीनी रे झीनी बीनी चदरिया।
काहे का ताना, काहे की भरनी,
कौन तार से बीनी चदरिया।
इंगला-पिंगला ताना भरनी,
सुषमन तार से बीनी चदरिया।

आठ कंवल दस चरखा डोलै,
पांच तत्व गुन तीनी चदरिया।
सांई को सियत मास दस लागे,
ठोक ठोक कर बीनी चदरिया।

सो चादर सुर नर मुनि ओढ़ी,
ओढि़ के मैली कीनी चदरिया।
दास ‘कबीर’ जतन जतन सौं ओढ़ी,
ज्यों की त्यो धरि दीनी चदरिया।

Saturday, February 4, 2012

नहीं है वो पहले जैसा .....

पिछले बरस जब होली आई, फूलों ने ली अंगडाई, 
रंगों की बौछार आई, मन में अपार खुशी छाई,
फिर आया मौसम पतजड़ का... अगल था कुछ, 
मस्त आनन्द लाया,
जेठ की तपन निकल गई तपते तपते, 
जून माह में एक जलजला आया,
रह गया मरते मरते,
बस यूं हीं बातें करते करते,
एक दूजे के मन को हरते,
हम जा रहे थे सुन्दर उपवन में, 
आखिर पहुंच गए उपवन में . . . 
लेकिन तब तक पतजड़ आ गया,
नहीं है वो पहले जैसा .....

"लखन हैरान"



फिर सैलानी हो गए . . .



दगा दे गई जबानं, ध्वस्त हो गए अरमान
जारी हो गए फरमान, अब हम नहीं रहे मेहमान
फिर सैलानी हो गए . . .

Wednesday, February 1, 2012

चिंतन क्लब, जयपुर

क्या हमें जयपुर में चाय, चर्चा और चिंतन शुरू कर देना चाहिए। मेरा मतलब चिंतन क्लब से है दोस्तों

क्या लोकपाल से गरीब मजदूरों को काम का दाम मिल जायेगा ?


लखन सालवी 
लोकपाल पर भारी चर्चाएं हो रही है। अन्नाजी छा गए है] उनके एक इशारे पर देश की जनता दिल्ली में पहूंच जाती है और रामलीला मैदान व राजघाट पर पैर देने को जगह शेष नहीं रह जाती है। पर ऐसा लगता है कि लोकपाल बिल महज भ्रष्टाचार का विरोध मात्र बन कर रह गया है। हालांकि बुद्धिजीवी व भेड़चाल चलने वाले सभी इस कानून की मांग पुरजोर से कर रहे है। लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या लोकपाल कानून के बन जाने से व्यवस्थाएं सुधर जाएगी उससे भी बड़ा सवाल है कि व्यवस्थाओं को बिगाड़ने के लिए कौन जिम्मेदार है
मैं तो कई कानूनों का बुरा हश्र होते देख रहा हूं एक कानून की स्थिति देखिए ---

महानरेगा को एक योजना महज समझा जा रहा है जबकि यह महज योजना नहीं होकर एक कानून है। इस कानून के तहत नागरिकों को 10 अधिकार दिए है। इस कानून के तहत कोई भी नागरिक ग्राम पंचायत में अपने परिवार का रजिस्टेªशन कर रोजगार के लिए आवेदन कर सकता है। आवेदन करने के बाद  15 दिन के भीतर आवेदक को रोजगार देने] रोजगार देने के बाद नियोजित मजदूर द्वारा काम कर लेने के बाद 15 दिन के भीतर उसे काम का मेहनताना देने का प्रावधान है। 

बारां जिले के सहरिया बाहुल्य क्षेत्र के मजदूर इस कानून के बारे में नहीं जानते है लेकिन यह सच है कि वो काम के लिए आवेदन करते है और उन्हें रसीद नहीं दी जा रही है। रसीद नहीं दी जा रही है तो मतलब साफ है कि 15 दिन के भीतर काम देने की गांरटी नहीं रही। काम नहीं दिए जाने की स्थिति में 15वें दिन के बाद से आवेदक को घर बैठे बेरोजगारी भत्ता दिए जाने का प्रावधान है। लेकिन मजदूर को यह प्रमाणित करना पड़ेगा कि उसे रोजगार नहीं मिला] जो कि पावती रसीद के बिना संभव नहीं है। 

इसी तरह देरी से भुगतान करने की स्थिति में मजदूर को मुआवजे व ब्याज सहित काम का भुगतान करने के प्रावधान है। सिर्फ बारां जिले में ही नहीं अपितु पूरे देश में ऐसे कई मजदूर है जिन्हें समय पर काम का दाम नहीं दिया जा रहा है। बारां जिले की शाहबाद तहसील के कोटरा] बीलखेड़ा सहित कई गांवों के मजदूरों का एक साल पहले का भुगतान नहीं हुआ है। किनगंज तहसील के बांसथूनी] महेरावता खैरपुर सहित कोई दर्जन भर गावं के मजदूर ऐसे है जिन्होंने एक वर्ष पूर्व महानरेगा के तहत कार्य किया लेकिन उन्हें अभी तक भुगतान नहीं किया गया है। 

किशनगंज व शाहबाद ब्लाक की कोई एक आध ग्राम पंचायते ही है जहां रोजगार सहायक द्वारा पावती रसीद दी जा रही है। शेष ग्राम पंचायतों में मजदूरों को पावती रसीद नहीं दी जा रही है। इस बात से तमाम लोग वाकिफ है] तहसील] जिला व राज्य स्तर के अधिकारी व विभाग के मंत्री व मुख्यमंत्री व बुद्धिजीवी सभी इस बात को जानते है लेकिन इस व्यवस्था को सुधारने की बात कोई भी नहीं कर रहा है। 
ऐसे ही कई कानून है जिनकी दशा हम सभी देख रहे है। महानरेगा] सूचना का अधिकार कानून] वन भूमि अधिकार कानून] शिक्षा का अधिकार कानून जैसे कई कानून है जिनकी स्थिति किसी से छुपी हुई नहीं है। लोग तो महानरेगा को अर्थव्यवस्था बिगाड़ने वाला व महंगाई बढ़ाने वाली सरकारी योजना बताते है। महंगाई बढ़ने में महानरेगा को सबसे बड़ा कारण कहा जा रहा है। दूसरी तरफ हम सभी व्यवस्था को सुधारने के लिए लोकपाल कानून की मांग कर रहे है। हम चाहते है कि लोकपाल नाम का जिन्न आए और व्यवस्था को सुधार दे। जबकि व्यवस्था को सुधारने के लिए जरूरी है आम नागरिकों की जागरूकता और भागीदारी जो कहीं भी नजर नहीं आ रही है। मैं तो यही कहता हूं कि अगर हासिए पर जी रहे लोगों के लिए लोकपाल मददगार नहीं बन सके तो फिर महज कानूनों की सूची को और लम्बी करने वाला कानून होगा लोकपाल।