Thursday, March 15, 2012

भंवर मेघवंशी पत्रकार नहीं है . . .

वंचितों के लिए लिखने वाला, उनके लिए आवाज उठाने वाला, उनके लिए नारे लगाने वाला, उनके लिए पैरवी करने वाला पत्रकार नहीं
15 मार्च । भीलवाड़ा के प्रेस क्लब ने भंवर मेघवंशी को पत्रकार मानने से  ही इंकार कर दिया है। एक वरिष्ठ पत्रकार ने कहा कि वंचितों के लिए लिखने वाला, उनके लिए आवाज उठाने वाला, उनके लिए नारे लगाने वाला, उनके लिए पैरवी करने वाला पत्रकार नहीं हो सकता है। मेघवंशी ने प्रेस क्लब की सदस्यता के लिए आवेदन किया था।
भीलवाड़ा प्रेस क्लब में सभी साथियों की उपस्थिति में ऐसा कहा गया है तो इससे यह भी शाबित हो गया है कि भीलवाड़ा जिले में वंचित वर्ग के लोगों की आवाज उठाने वाला भंवर मेघवंशी के अलावा कोई नहीं है। क्योंकि सदस्यता न देने का कारण यह बताया गया है कि वो गरीबो के लिए आवाज उठाता है, पीडि़तों के पक्ष में नारे लगाता है।
भंवर मेघवंशी (सम्पादक-डायमंड इंडिया)
उल्लेखनीय है कि वास्तव में भंवर मेघवंशी एक झोलाछाप पत्रकार है। वो गांव में जाते है, गरीब की सुनते है, पीडि़त की सुनते है और लिखते है। वो महज लिखते ही नहीं वरन गरीब व पीडि़त को न्याय दिलवाने के लिए हर स्तर पर प्रयास भी करते है। जरूरत पड़ने पर नारे भी लगा देते है। जब तक पीडि़त को न्याय नहीं मिल जाता, प्रयास करते रहते है।
पत्रकारिता के क्षेत्र में भंवर मेघवंशी ग्राम गदर पुरस्कार (राज्य स्तरीय) व सरोजिनी नायडू अवार्ड (नेशनल लेवल) से सम्मानित है तथा भीलवाड़ा से डायमण्ड इंडिया नाम की एक मासिक पत्रिका व खबरकोश.काम का प्रकाशन और संपादन करते है। लेकिन प्रेस क्लब ने इन्हें पत्रकार मानने से इंकार किया है। गजब है !
लगता है प्रेस क्लब वालों को वो ही पत्रकार लगता है जो लिखता है, दलाली करता है, सबकों चाय नाश्ता करवाता है। गरीबों के प्रति आत्मीयता रखने वाले, उनके लिए लिखने वाले और उनके लिए आवाज उठाने वाले भंवर मेघवंशी को पत्रकार नहीं माना गया है। वाकई में जमाने को बदल दिया गया है और पत्रकार की परिभाषा को भी। बहरहाल भंवर मेघंवशी ने प्रेस क्लब से आग्रह किया है वो उनका आवेदन पत्र मय आवेदन शुल्क के वापस लौटा दे।

1 comment:

  1. लखन जी, पत्रकारिता-जगत के लिए यह एक निहायत ही 'शर्मनाक घटना' है. बशर्ते, पत्रकार कहे जाने वाले इन 'पत्रकारों' में 'शर्म' का एहसास हो और इनको 'पत्रकार' के 'अर्थ' का बोध हो. आपने सच ही कहा है - 'वाकई में जमाने को बदल दिया गया है और पत्रकार की परिभाषा को भी।' क्योंकि- आज के बाजारवादी दौर में 'पत्रकारिता' का मूल मकसद तो बहुत पीछे छुट चुका है और इसके नाम पर 'मीडिया-माफियाओं' का नव-उदय बना हुआ है, जिनका मकसद येन-केन-प्रकारेण अधिकाधिक धन-सम्पदा जुटाना और सरकारी सुविधाओं का लाभ प्राप्त करना रह गया है. यानि- यह भी अब एक 'कारोबार' ही बनकर रह गया है. काश, भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष जस्टिस काटजू साहिब, 'पत्रकारिता' के गिरते इन मूल्यों की सुरक्षा पर भी ध्यान दें तो यह उनके कार्यकाल की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि बन सकेगी.
    'पत्रकारिता' के नाम पर कितनी दुर्भाग्यपूर्ण और शर्मनाक है एक वरिष्ठ पत्रकार की यह टिप्पणी - 'कि वंचितों के लिए लिखने वाला, उनके लिए आवाज उठाने वाला, उनके लिए नारे लगाने वाला, उनके लिए पैरवी करने वाला पत्रकार नहीं हो सकता है।' इससे बिल्कुल साफ है कि - 'पत्रकार वही, जो लुटेरों का सहयोगी व सहभागी हो - बाकि तो सब 'खरपतवार' समान ही है.' शायद, इसीलिए अब इस आज़ाद कहे जाने वाले भारत देश की 'लोकतंत्रीय व्यवस्था' के उच्च वर्णीय बने हुए संचालकों के इशारों पर ही दलित व दमित वर्ग के लिए बने हुए 'आरक्षण' को खत्म किये जाने के लिए 'आरक्षण विरोधी अभियान' चल रहा है तथा दबंग जातियों के पैरोकारों द्वारा 'आरक्षण' के बहाने 'आतंक का कहर' बरपाया जा रहा है. क्योंकि- सदियों से इनकी दबंगता व आतंक का शिकार बने हुए दलित व दमित समुदाय में इस 'संवैधानिक आरक्षण' के सहारे इन ६ दशकों में हुए आंशिक विकास व जागरूकता - इनको 'सहन' नहीं हो पा रही है. फिर- जब 'व्यवस्था' के संचालक बने हुए तीनों ही प्रमुख स्तंभ की 'डोर' भी इन्हीं के हाथों में बनी हुई हो, तो- भंवर मेघवंशी जैसे 'दलित-जागरुकों' के साथ तो यही सब कुछ होना है. हम भी इस 'दलित-दमन' को झेल रहे हैं और इसके विरुद्ध 'संघर्षरत' बने हुए हैं.
    इसलिए, लखन जी, अब समय की यही मांग है कि - हम सभी 'जागरूक दलितों' को पूरी सजगता व सर्तकता के साथ इस 'अन्याय' के विरुद्ध खुले रूप से आवाज उठानी होगी और इस चुनौती को सशक्ता के साथ जवाब देना होगा. हम इस संघर्ष में सदैव आपके साथ है.
    इस 'दलित-दमन' के संघर्ष को वरिष्ट जनवादी कवि आदरणीय ब्रजेन्द्र कौशिक जी (कोटा) ने अपने 'दोहों' में कुछ इस तरह से पिरोया है - " बार-बार टालें मगर, रुके न जब संग्राम / तो फिर ताकत से लड़ो, हों कुछ भी परिणाम." - क्योंकि - " वह हमदर्दी व्यर्थ है, काम न जो कुछ आय / नहीं आंसुओं की नदी, लगती आग बुझाय." - और - " स्वाभिमान से अधिक प्रिय, लगे जिन्हें दासत्व / वे ढोने को विवश हैं, आजीवन खंड्त्व."
    - जीनगर दुर्गा शंकर गहलोत, प्रकाशक व संपादक, पाक्षिक समाचार सफ़र, सत्ती चबूतरे की गली, मकबरा बाज़ार, कोटा - ३२४ ००६ (राज.) ; मोब.नं. : ०९८८७२-३२७८६

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