Tuesday, June 11, 2013

गहलोत साब, ये पब्लिक है . . सब जानती है


  • लखन सालवी 

विधानसभा चुनाव नजदीक है। राजस्थान में कांग्रेस सरकार का इस शासन काल का यह अंतिम वर्ष है। राजस्थान सरकार ने कई लोक लुभावनी योजनाएं लागू की, जनता की समस्याओं के समाधान के लिए नए विधेयक भी लागू किए लेकिन जमीनी स्तर पर ना तो योजनाएं क्रियान्वित हो पाई है और ना ही नये विधेयक जनता को राहत दे पाए है।

सूबे के सरदार आजकल संदेश यात्रा निकाल रहे है, इस यात्रा के माध्यम से जन-जन तक पहुंचने और उन्हें अपने द्वारा किए गए कामों की जानकारी दी जा रही है। इस यात्रा के दौरान मुख्यमंत्री गहलोत शिक्षा क्षेत्र में विकास की बात भी कर रहे है लेकिन राज्य में स्थितियां वैसी नहीं है जैसी बताई जा रही है। बाल अधिकार संरक्षण राष्ट्रीय आयोग के साथ कार्य कर चुके परशराम बंजारा का कहना है कि शिक्षा का अधिकार कानून पूरे देश में लागू किया गया, 3 साल में ढांचागत व्यवस्थाएं की जानी थी। इसके लिए मार्च-2013 की डेटलाइन थी, मार्च बीत चुका है लेकिन अभी तक ढांचागत व्यवस्थाएं नहीं की गई है। विद्यालयों में टायलेट बना दिए गए है लेकिन सभी बंद पड़े है। सफाई कर्मचारी नहीं है। शिक्षा के अधिकार कानून की बूरीगत है। वे बताते है कि राजस्थान में छात्र-अध्यापक का अनुपात तो ठीक है, लेकिन वितरण ठीक नहीं है। कहीं बहुत छात्र है पर अध्यापक नहीं है, कहीं छात्रों की संख्या कम है मगर अध्यापक अधिक है। साथ ही विद्यालयों में नामांकन तो ठीक है लेकिन बच्चों का ठहराव नहीं है। बंजारा ने बताया कि सरकार ने घुमन्तु जातियों के बच्चों को शिक्षा से जोड़ने के कोई प्रयास नहीं किए है।

बारां जिले के किशनगंज के राधा किशन शर्मा बताते है कि सरकार ने बिना सोचे समझे विद्यालय भवन बनवा दिए। लेकिन उन विद्यालयों में ना तो अध्यापक है ना ही किसी प्रकार की सुविधाएं। विद्यालयों में नामांकन बढ़ने की बात को सिरे से नकारते हुए शर्मा कहते है कि फर्जी नामांकन किया गया है जिससे मिड-डे मिल में भ्रष्टाचार किया जा रहा है। वहीं किशनगंज तहसील के राधापुरा सहित दर्जन भर विद्यालय भवनों की स्थिति जीर्णशीर्ण है, जिनकी देखभाल सरकार से नहीं हो पा रही है, सरकार ताबड़तोड़ नए विद्यालय भवन बनवाती जा रही है और पुराने का ख्याल ही नहीं है।

ग्रामीणों की माने तो सरकार ने निजी विद्यालयों को बढ़ावा देने का काम किया है। सैकेंड़ों विद्यालय नियम विरूद्ध चल रहे है। इन विद्यालयों में न केवल शिक्षा के अधिकार अधिनियम कानून की धज्जियां उड़ाई जा रही वरन जनता से वसूली भी की जा रही है।

भीलवाड़ा जिले की शाहपुरा विधानसभा क्षेत्र के विधायक महावीर मोची व माण्डलगढ़ विधान सभा क्षेत्र के विधायक प्रदीप सिंह का कहना है कि ऐसा नहीं है सरकार ने बच्चों को शिक्षा से जोड़ने के लिए प्रयास नहीं किए हो। सरकार ने जनता को जागरूक करने के लिए विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम संचालित किए। पलायन पर जाने वाले बच्चों को भी शिक्षा से जोड़ने के पुख्ता बंदोबस्त किए है लेकिन कर्मचारी वर्ग ने सरकार की योजनाओं का लाभ जनता तक पहुंचाने में मदद नहीं की है। फलतः कर्मचारी वर्ग बच्चों को जोड़ने में नाकाम रहे है। यहां तक की अध्यापक वर्ग को स्वयं अपने ऊपर ही कांफीडेंस नहीं है इसलिए वो अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में पढ़ने के लिए भेज रहे है। 

सरकार भले ही ढोल पीटे और विभाग भले की आंकड़ों का खेल खेले लेकिन सच्चाई यहीं है कि इस अधिनियम को लागू करने के बाद से विद्यालयों के रजिस्ट्ररों में नामांकन तो बढ़ा लेकिन वास्तविकता में बच्चों को शिक्षा से नहीं जोड़ा गया। वहीं अध्यापक वर्ग का कहना है कि सरकार ने अध्यापक वर्ग को तो मल्टीटास्किंग मशीन बना दिया है, जिनसे मनचाहा कार्य करवाया जा रहा है। 

वहीं ग्रामीण शिक्षा पर कार्य कर रहे रामराय आचार्य बताते है कि सरकार और विभाग भले ही आंकड़ों का खेल खेले लेकिन सच्चाई यहीं है कि इस अधिनियम को लागू करने के बाद से विद्यालयों के रजिस्ट्ररों में नामांकन तो बढ़ा लेकिन वास्तविकता में बच्चों को शिक्षा से नहीं जोड़ा गया। उन्होंने बताया कि राज्य में कार्यरत गैर सरकारी संगठन अल्लारिप्पू द्वारा 10 जिलों मंे सर्वे किया जिसकी रिपोर्ट दिसम्बर 2012 में जारी हुई। इस रिपोर्ट के अनुसार सरकारी विद्यालयों में भारी संख्या में फर्जी नामांकन पाया गया। 

बारां जिले में कार्यरत हाड़ौती मीडिया रिसोर्स सेंटर से जुड़े योगीराज ओझा ने बताया कि बारां जिले के शाहबाद ब्लाक के मडी सहजना गांव में राजकीय प्राथमिक विद्यालय में 25 से अधिक बच्चों का नामांकन बताया गया है जबकि विद्यालय कई दिनों से बंद मिला, मजे की बात है वहां नियुक्त अध्यापक को वेतन मिलता रहा। इसी जिले के किशनगंज ब्लाॅक के नया गांव विद्यालय में 35 बच्चों का नामांकन था, अध्यापक ने अपने बच्चों के नाम भी फर्जी नामांकित कर दिए थे, जबकि अध्यापक के बच्चे पास के गांव में स्थित निजी विद्यालय में पढ़ाई कर रहे है। इस विद्यालय में पिछले साल एक भी छात्र की भौतिक उपस्थिति रही। इस जिले में सुहांस सहित दर्जन भर विद्यालयों में ऐसे ही हालात मिले। जानकारी के अनुसार अध्यापक नामांकन के समय फर्जी नामांकन कर देते है और बाद में ड्राॅप आउट बता देते है।

रामराय आचार्य के कथन को इस उदाहरण से बल मिलता है कि भीलवाड़ा जिले के माण्डल तहसील मुख्यालय के समीप स्थित कालबेलिया बस्ती में 60 परिवार निवास करते है, इस बस्ती में 130 मतदाता है। इस समुदाय के लोग अत्यंत गरीबी में जी रहे है। कई सालों पहले 2 परिवारों के इंदिरा आवास योजना के तहत आवास बनाए गए थे बाकी के परिवार टपरियों और तम्बूओं में ही निवास कर है। खेती के लिए एक इंच जमीन भी नहीं है। गरीबी की आग के थपेड़ों में झुलस रहे इन परिवारों को बीपीएल सूची में शामिल नहीं किए गए है। इस बस्ती में 3 से 14 साल के करीब 50 बच्चें है। उनके से 30 बच्चों को बस्ती का ही पूरण कालबेलिया पढ़ाता है। वो दिन में ईट भट्टे पर काम करता है और रात में बच्चों को पढ़ाता है। पूरण ने बताया कि विद्यालय दूर होने के कारण बच्चों के परिजन उन्हें वहां नहीं भेजते है।

पूरण कालबेलिया का यह काज राज्य में सत्ताधीन सरकार एवं सरकारी व्यवस्था के मुंह पर करारा तमाचा है। यह तो महज एक उदाहरण है राज्य भर में ऐसे सैकड़ों मामले है। कई सरकारी स्कूलों में अध्यापक है, स्कूलों के नाम पर लाखों रुपए वार्षिक खर्च भी किया जा रहा है लेकिन उन स्कूलों में एक भी बच्चे का नामांकन नहीं है। बारां जिले के आदिवासी क्षेत्र के शाहबाद कस्बे के वरिष्ठ पत्रकार रामप्रसाद माली का कहना है कि राजस्थान सरकार अंधी हो चुकी है, एक जगह विद्यालय है, अध्यापक है, पर बच्चें नहीं और दूसरी जगह विद्यालय है, बच्चों का नामांकन है, पर अध्यापक नहीं ऐसे में सरकार को चाहिए कि व्यवस्थाएं सुधारें।

शिक्षाविद् बताते है कि शिक्षा का निजीकरण होता जा रहा है। पिछले एक दशक के आंकड़ों पर नजर डाले तो निजी विद्यालयों की संख्या में भारी बढ़ोतरी हुई है साथ ही निजी विद्यालयों में बच्चों के नामांकन की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। सबसे बड़ा सवाल है कि आखिर क्यों लोगों का रूझान निजी विद्यालयों की ओर बढ़ रहा है ? जबकि सरकार शिक्षा पर अरबों रुपए खर्च कर रही है। 

शिक्षा के क्षेत्र में कार्य कर रहे उदयपुर के हरिओम सोनी व भंवर सिंह चंदाणा का कहना है कि सरकारी व्यवस्था से जनता का मोह उठ चुका है आखिर उठेगा भी क्यूं नहीं 25 हजार से 40 हजार रुपए मासिक वेतन वाले सरकारी अध्यापक द्वारा बच्चों को दी जा रही शिक्षा 1500 रुपए से 6000 रुपए मासिक वेतन वाले निजी विद्यालय के अध्यापक से कमत्तर जो है। उनका मानना है कि बच्चों को पढ़ाने की सरकारी अध्यापकों की मानसिकता ही नहीं रही है। 

भंवर सिंह चंदाणा ने बताया कि लोकल लेवल पर पाॅलिटिक्स हावी है जो अध्यापकों की नियुक्ति पर विपरित असर करती है। उन्होंने बताया कि नई नियुक्तियों में प्रावधान किया गया है कि कम से कम ढ़ाई साल तक एक जगह रहना होगा, इससे सुधार की गुंजाइस है। 

हरिओम सोनी ने बताया कि आज के समय में लोग क्वालिटी एज्यूकेशन को देखते है। निजी विद्यालयों में क्वालिटी एज्यूकेशन पर ध्यान दिया जाता है। उन्होंने बताया कि राजस्थान में 70 से 80 प्रतिशत सरकारी अध्यापकों के बच्चें निजी विद्यालयों में पढ़ रहे है। 

वे चिंता प्रकट करते हुए कहते है कि शिक्षा को लेकर राजस्थान सरकार की विरोधाभाषी नीति है। बताया कि एक तरफ सरकार द्वारा संचालित केन्द्रीय विद्यालय है, कलक्टर भी चाहता है कि उसका बच्चा वहां पढ़ें। दूसरी तरफ सरकार द्वारा ही संचालित सरकारी विद्यालय है जिनमें वहां का अध्यापक भी नहीं चाहता उसके बच्चे वहां पढ़ें। इससे साफ है सरकार की शिक्षा नीति ठीक नहीं है। सोनी ने बताया कि सरकार ने शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत सतत् मूल्यांकन पद्धति लागू की है लेकिन वो भी मजाक जैसा है। 

शिक्षा के अधिकार अधिनियम को लेकर शिक्षाविदों में भी भारी विरोधाभास है। राइट टू एज्यूकेशन एक्ट के पक्षधर एवं इस एक्ट की ड्राफटिंग कमेटी की सदस्य रहे विनोद रैना के कहते है कि सरकार को राइट टू एज्यूकेशन कानून को प्रभावी रूप से लागू करना है और इस कानून के दायरें में रहकर ही व्यवस्थाएं बनाना है, अध्यापकों की नियुक्ति करनी है और नए स्कूल खोलने है। कानून के तहत प्रत्येक एक किलोमीटर की दूरी पर एक प्राथमिक स्कूल होना चाहिए और प्रत्येक 2 किलोमीटर की दूरी पर एक उच्च प्राथमिक स्कूल होना चाहिए। स्कूल प्रबंधन समिति द्वारा भेजे जाने वाले प्रस्ताव के अनुसार स्कूलों का निर्माण किया जाना है। रैना स्वीकार करते है कि कई कारणों से सरकारी स्कूलों के प्रति जनता की सोच ठीक नहीं है लोग सरकारी स्कूलों में बच्चों को नहीं पढ़ाना चाह रहे है। उनका मानना है कि अगर इस एक्ट को प्रभावी रूप से लागू किया जाता है तो निश्चित रूप से सरकारी स्कूलों की स्थितियां सुधरेगी और जनता में भी सरकारी स्कूलों की छवि में सुधार आएगा। रैना ने राइट टू एज्यूकेशन पर जोर देते हुए बताया कि मध्यप्रदेश के सिलौर जिले के नसरूलाह ब्लाॅक में लोगों ने 13 निजी स्कूलों से बच्चों को वापस सरकारी स्कूलों में दाखिल करवाया। 

विनोद रैना का कहना है कि जो अध्यापक कहते है कि सरकार ने उन्हें मल्टी टास्किंग मशीन बना दिया है वो सरासर गलत है। अव्वल तो कानून में लिखा है कि इलेक्शन में उन्हें जिम्मेदारी लेनी है लेकिन अगर सरकार अन्य काम सौंपती है तो अध्यापकों को चाहिए कि वो एसएमसी में इसकी शिकायत दर्ज करवाएं या कोर्ट में जाए। दरअसल संघर्ष कोई नहीं करना चाह रहा है इसलिए स्थितियों में सुधार नहीं हो पा रहा है। 

मध्यप्रदेश के शिक्षाविद अनिल सदगोपाल राइट टू एज्यूकेशन के घोर विरोधी है। उनका मानना है कि राइट टू एज्यूकेशन से व्यवस्था में बदलाव नहीं पाएगा। उनकी बात सही भी लगती है क्योंकि इस एक्ट के अनुसार तो वर्तमान में राजस्थान में 1 लाख 22000 प्राथमिक स्कूल होेने चाहिए जबकि वर्तमान में 75000 स्कूल ही है। अध्यापक वितरण के बारे में भी एक्ट में साफ बताया गया है कि प्रत्येक स्कूल में 30 बच्चों पर एक अध्यापक होना चाहिए जो पता नहीं कब संभव हो पाएगा और जब तब अध्यापकों की नियुक्ति नहीं हो पाएगी तब तक स्थितियों में सुधार हो पाना नामुमकिन है। 

सरकारी विद्यालयों में नामांकन कम होने या उपस्थिति कम होने की बात पर शिक्षा विभाग के अधिकारी कर्मचारी उखड़ जाते है, कहते है - परिजन बच्चों को विद्यालय में नहीं भेजना चाहते है तो हम क्या करें ? कई बार कहते है कि - बच्चे पढ़ना नहीं चाहते है इसलिए विद्यालय में नहीं आते है। लेकिन ये तमात बातें निराधार है। सच्च तो यह है कि सूचना एवं क्रांति के युग में शिक्षा की महत्ता को मजदूर वर्ग भी अच्छे से जानने लगा है और वे अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते है। गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते है।

यह सटीक उदाहरण होगा ये जानने के लिए कि गरीब से गरीब व्यक्ति अपने बच्चों को पढ़ाना चाहता है- गत दिनों बारां जिले से एक सूचना मिली। सूचना देने वाले ने बताया कि सरकार निःशुल्क शिक्षा प्रदान कर रही है जबकि बारां जिले के किशनगंज ब्लाॅक के भंवरगढ़ गांव में संचालित दूसरा दशक परियोजना द्वारा आवासीय कैम्प में पढ़ाए जा रहे बच्चों से 18 किलो अनाज लिया जा रहा है जबकि अमूमन बच्चें बीपीएल श्रेणी के परिवारों के है। वाकई यह गंभीर मुद्दा था। इस मामले की तह तक गए तो जानकारी मिली कि दूसरा दशक परियोजना भंवरगढ़ द्वारा आवासीय कैम्प आयोजित किए जाते है तथा क्षेत्र के अशिक्षित किशोर-किशोरियों को नामांकित कर शिक्षा दी जाती है। यहां प्रतिवर्ष अशिक्षित एवं ड्राप आउट 50 किशोर एवं 50 किशोरियों को शिक्षा दी जाती है। संस्था से जुड़े विजय मेहता ने बताया कि सालभर में 2 आवासीय कैम्प आयोजित किए जाते है जिन पर लगभग 7 लाख रुपए खर्च किए जाते है।

मेहता ने बताया कि कई बार आवासीय कैम्प का समापन हो जाने के बावजूद किशोर-किशोरियां संस्था में ही आगे की पढ़ाई करने की इच्छा जाहिर करते है। उनके परिजन भी चाहते है कि उनके बच्चे संस्था में पढ़ें। ऐसे में किशोर-किशोरियों को पढ़ाने के लिए संस्था द्वारा अगल से आवासीय कैम्प आयोजित किए जाते है। इन कैम्प में पढ़ने वालों के परिजनों से 18 किलो गेहूं लिए जाते है। विदित रहे कि संस्था में पढ़ने वाले अमूमन बच्चे-बच्ची बीपीएल परिवार के होते है। उनके परिवार को सरकार से 35 किलो गेहूं प्रतिमाह मिलता है। यह सोचनीय है कि परिजन अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए सरकार से मिलने वाले अनाज में से आधे से भी अधिक को संस्था में जमा करवा देते है। वहीं जोधपुर जिले के बाप ब्लाॅक में संचालित दूसरा दशक परियोजना में लोग 1000 रुपए मासिक देकर अपने बच्चों को पढ़ा रहे है। अर्थात् वे अपने बच्चे-बच्चों को हर तकलीफ सहन करके भी पढ़ाना चाहते है।

उल्लेखनीय है कि राज्य में दूसरा दशक परियोजना नामक एक संगठन संचालित है। इस संगठन का राज्य के 7 जिलों में कार्य है। इसके द्वारा एक वर्ष में 2 बार आवासीय कैम्प आयोजित करवाए जाते है जिनमें करीब 900 किशोर-किशोरियों को शिक्षा दी जाती है।

बहरहाल मुख्यमंत्री अशोक गहलोत संदेश यात्रा के बहाने अपने शासन काल में लागू की गई योजनाओं व अधिनियमों से जनता को भुनाने के लिए राज्य भर की जनता के बीच जा रहे है। संदेश यात्रा से वो कांग्रेस की छवि में कितनी ग्रोथ ला पायेंगे ये तो भविष्य की गर्त में छुपा है लेकिन जगजाहिर तो यह कि - राज्य में शिक्षा की स्थिति बिगड़ती जा रही है। 

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