Tuesday, September 23, 2014

यादगार: स्टाफ कैंप-2014

फीडबैक कम वृतांत

‘‘शायद आप पढ़ते-पढ़ते थक सकते है लेकिन क्या करूं मैं बोलता नहीं और कमबख्त ये अंगुलिया है कि लिखने से बाज नहीं आती’’ - लखन हैरान

आज आजीविका ब्यूरो में अपन को 3 माह पूरे हुए है। आजीविका ब्यूरो में अब तक का सफर बहुत अच्छा रहा है। अपने अधिकारों से बेखबर, सबसे वंचित व हासिए पर जी रहे लोगों के अधिकारों की पैरवी करने, उनके परिवारों को सषक्त करने, जनकल्याणकारी योजनाओं से जुड़ाव करने व उनके युवाओं को रोजगार के क्षेत्र में दक्ष बनाने का कार्य आजीविका ब्यूरो द्वारा किया जा रहा है। (हकीकत तो यह है कि आजीविका द्वारा किए जा रहे कार्यों को शब्दों में पिरौने की कोशिश करूं तो यह अन्याय होगा)। आजीविका का काम मुझे बहुत पंसद आया, नतीजतन मैं पत्रकारिता जगत को टाटा करके सामाजिक क्षेत्र में आया। ओह साॅरी . . . साॅरी. . .साॅरी. मैं स्टाफ कैंप कें संदर्भ में अपनी बात कहना चाह रहा हूं . . .  ये बावरा मन भी ना, कहां से कहां चला जाता है। 
खैर . . . आता हूं मुद्दे पर। एक दिन गोगुन्दा सेंटर पर कम्प्यूटर की हार्ड डिस्क टटोलते वक्त कुछ फोटोग्राफ दिखाई दिए जिसमें राजीव जी नाच रहे थे, आभा जी साधु बनी हुई थी, कोई धोती कुर्ता पहनकर तो कोई लहंगा चोली में नाच रहा था। मेरे एक परिचित सीएसडीएस के विपुल मुद्दगल भी दिखाई पड़े तो मैंनें उत्सुकतावश सेंटर पर सेवाएं दे रहे उदय सिंह राव से उन फोटों के बारे में पूछा। उन्होंने मुझे बताया कि ये हमारे स्टाफ कैंप के फोटो है। पहली बार मैंनें स्टाफ कैंप के बारे में सुना। उन्होंने बताया कि 3 दिवसीय स्टाफ कैंप किसी पर्यटक पाॅइन्ट पर आयोजित किया जाता है, जिसमें आजीविका ब्यूरों के सभी केंद्रों के सभी साथी भाग लेते है। कैंप में विभिन्न विषयों के संदर्भ में कार्यशालाएं आयोजित की जाती है और सांस्कृतिक कार्यक्रम भी। स्टाफ कैंप का वर्णन उदय सिंह राव ने जिस प्रकार से किया उससे मैं रोमांचित हो उठा, इसके पीछे एक कारण था . . . मेरा कला प्रेमी होना। मैंनें कहा ना . . . बावरा मन हकीकत में जीने ही नहीं देता . . . ले गया सपने में . . . अब मैं स्टाफ कैंप में था। सपने से कब बाहर निकला पता ही नहीं चला, तब तक उदय सिंह राव जी भी आजीविका ब्यूरो से इस्तीफा देकर जा चूके थे। 
सपना भी भूल गया और स्टाफ कैंप भी। सुबह 6.30 बजे से दिनचर्या आरम्भ होकर कभी रात की करीब 9.00 बजे तो कभी 1.00 बजे तक, मस्ती से चल रही थी। 4 सितम्बर को गोगुन्दा केंद्र पर मासिक समीक्षा बैठक आयोजित की गई थी, जिसमें राजीव जी, कृष्णा जी व आभा जी ने भी भाग लिया था। इसी दौरान राजीव जी ने स्टाफ कैंप का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि सभी तैयारियों के साथ स्टाफ कैंप में आवें। राजीव जी को मैं कई बरसों से जानता हूं और मेरे मस्तिष्क की सैकेण्डरी मैमोरी में यह सुरक्षित है कि - वे एक गंभीर प्रकार के सामाजिक कार्यकर्ता है। वो तो पुराने स्टाफ कैंप के फोटों देखने से पहली बार लगा कि वो 
कामों में व्यस्तता के चलते 12 सितम्बर तक तो कुछ कर नहीं पाया। अब थोड़ा सोचा तो ख्याल आया कि क्यूं ना एक नाटक का मंचन किया जाए, जिसमें सभी साथियों की भूमिका निर्धारित की जाए। अपनी एक बूरी आदत है, जो सोचते है कर लेते है। विरह की अग्नि में जलने की बजाए क्रियटीविटी में रम जाना आदत में रहा है तो रात के समय का उपयोग अच्छे से कर लेते है। रात थी, मैं था और मेरी कलम, नतीजा यह रहा - ‘‘आदिवासी युवा: प्रवास, विवाह और विरह’’  षिर्षक का एक नाटक तैयार हो गया। इसमें संवाद के साथ कुछ गानें भी थे। पर्दें के पीछे रहना अच्छा लगता है, सो पूरे नाटक में मैंनें अपनी भूमिका नेपथ्य से गायन की स्वयं ही सुरक्षित रख ली। 
स्टाफ कैंप के सजीव चित्र पुनः मन मंदिर में छाने लगे। एक ईमेल पढ़ा तो पता चला कि हमारे केंद्र की ओर से ‘‘पल्लो लटके’’ शिर्षक वाले राजस्थानी गाने पर प्रस्तुति दी जानी है। मेरी तो और भी अधिक अपेक्षा थी, मैं तो कोई धांसू (सबको फना कर देने वाली) प्रस्तुति देने की सोच रहा था, (केंद्र के सभी साथियों की सहभागिता वाली) . . . पर अपन भी मंजे हुए खिलाड़ी है। अकेले ‘‘पल्लो लटके’’ गाने पर प्रस्तुति को मेरा मन अधिक मोहित कर देने वाली मानने को तैयार नहीं था। मैं कुछ सोच ही रहा था कि साथियों ने कहा कि राजस्थानी गानों को मिलाकर एक ‘‘रिमिक्स सोंग’’ बनाया जाए और उस पर प्रस्तुति दी जाए। 
अब दो प्रकार की चुनौतियां मेरे सामने थी। एक तो राजस्थानी गानों का चयन करना और दूसरा साॅफ्टवेयर कबाडना। साॅफ्टवेयर के माध्यम से ही राजस्थानी गानों को मिलाकर ‘‘रिमिक्स सोंग’’ बनाना संभव था। 
16 की सुबह नाटक को साथियों के समक्ष रखा तो सभी ने सहमति दे दी। तय किया गया कि सायरा व बरवाड़ा केंद्र के साथियों को भी 17 सितम्बर की रात गोगुन्दा केंद्र पर बुला लिया जाए और उस रात नाटक व रिमिक्स सोंग पर तैयारी कर ली जाए। 
17 की शाम को साथी केंद्र पर पहुंच गए, ढोलक में कुछ खराबी थी, जिसे ठीक करवा लिया गया। जद्दोजहद के बाद इसी शाम एक अपूर्ण ‘‘रिमिक्स सोंग’’ भी बना लिया।
एंट्री सोंग ‘‘गुल्ली डांडों मूच्छया पर फेर लो जी’’ हमारी मंच पर उपस्थिति को दर्शाने वाला था, उसके बाद ‘‘पल्लो लटके’’ प्रस्तुति का थीम सोंग था, उसके बाद ‘‘पीली लुगड़ी, लाम्बोें घूंघट काड लेबा दे’’ और ‘‘आपा चकरी में झूलांगा, आपा डोलरे में हिंदांगा, लारा चाले नी धापूड़ी ऐ’’ ये दोनों हर किसी को झूमने पर मजबूर कर देने वाले सोेंग थे। 
गाने अच्छे थे, बोले भी अच्छे और रिदम भी अच्छा। केंद्र के सभी साथियों को ग्रुप डांस करना था। रियाज के लिए सभी तैयार थे, राजमल कुलमी जी, इनका नाम लेते ही मुझे लगा कि ये डांस नहीं कर सकेंगे लेकिन जब नाचने का अभ्यास आरम्भ हुआ तो मैं कुलमी का ‘‘जुलमी’’ रूप देखकर अचंभित रह गया। अभ्यास के दौरान वो जबरदस्त नृत्य प्रस्तुत कर रहे थे। नृत्य के कुछ स्टेप सिखाने में हमारे रिजनल काॅर्डिनेटर (उन्हें सिजनल काॅर्डिनेटर कह दूं तो कोई अतिश्योक्ति ना होगी, क्योंकि वे रिजनल काॅर्डिनेटर के रूप में कभी-कभी ही नजर आते है बाकी तो दोस्त ही बने रहते है।) की पत्नि शोभा जी ने भी मदद की। कई बार रिटेक हुए . . . रात के 10 बजते-बजते सभी थक कर चूर हो गए। डांस करने की जिन की इच्छा नहीं थी वो तो मन ही मन कोस भी रहे थे। रात 10 बजे बाद सभी ने साथ खाना खाया। खाने के बाद नाटक का अभ्यास किया जाना था लेकिन वापस लौटे तो आधे साथी गायब थे। जो बचे उनमें मंजू जी, देवेन्द्र जी, हिमांशु जी, जसवंत जी, लालू जी, शांति जी, गुलाबी जी व मैं था। हमने एक बार नाटक का अभ्यास करना तय किया और . . . एक-डेढ़ घंटे में अभ्यास कर ही लिया। सभी को अच्छा लगा और सभी मंचन को उत्साहित नजर आए। घड़ी 1 बजा चुकी थी। सुबह जल्दी उठना था। 11.30 बजे तक उदयपुर हेडआॅफिस पहुंचना था सो . . . सो गए। 
सुबह 8.30 बजे सभी चलने को तैयार थे, सभी को साथ चलना था लेकिन विभिन्न कारणों के चलते हम किस्तों में उदयपुर पहुंचे। उदयपुर से रवाना हुए तो रास्ते में पता चला कि ढ़ोलक व हारमोनियम तो केंद्र पर ही भूल गए। अब ये जिम्मेदारी मेरे पर आन पड़ी। चित्तौड़गढ़ में पुराने संपर्कों को याद किया, पहला नाम सांवर जी सामने आया, फोन बुक में संपर्क नम्बर जुड़ने के बाद मुश्किल से मिटाता हूं, इस आदत का यहां लाभ मिला। सांवर जी ने मेरी जिम्मेदारी ओढ़ ली। ढोलक व हारमोनियम की व्यवस्था कर दी।
सास्वत को सास्वत ही रहने दो भई
जहां कैम्प आयोजित हुआ वहां व्यवस्थाएं अद्भूत थी। व्यवस्था करने वाली टीम को साधुवाद। बस से उतर कर सांवलिया अतिथि गृह के सामने पहुंचे तो देखा कि सभी साथी दिवारों पर चस्पा कागजों में नजर गड़ाए हुए है, परीक्षा कक्ष में जाने से पहले या परीक्षा परिणाम की सूचना देखने वाला सीन याद आ गया। मैंनें मेरा नाम ढूंढा तो मिला नहीं, मिलता कैसे सूची में मेरा सरकारी नाम लिखा था। साला सास्वत को कोई नहीं मानता, सब को सरकारी ही सही लगता है। मेरे नाम का बड़ा चक्कर है। सरकारी रिकाॅर्ड में मेरा नाम लखन की बजाए भगवान विष्णु की पत्नि की नाम किसने लिखा ? किंवदती है कि मुझे स्कूल में भर्ती करवाने गए मेरे बड़े पिताजी व प्रधानाध्यापक रूस्तम अली शेख के बीच हुए मिस कम्यूनिकेशन के कारण सरकारी रिकाॅर्ड में मेरा नाम लखन की जगह भगवान विष्णु की पत्नि का नाम दर्ज हो गया। पर वास्तव में तो यह ये खोज का विषय है। 
छोड़ों भी जाने दो रहने यार, करने दो मुझको कैंप की बातें चार
नाम के चक्कर की बातें छोड़कर कैंप की बातों की ओर आते है। सभी के साथ में भी अतिथिगृह में प्रवेश हुआ, मुझे कमरा नम्बर 115 में स्थान दिया गया था। इस संख्या के कमरे में गया तो अधिकतर साथी गोगुन्दा क्षेत्र के ही मिले। आरएसएसए गोगुन्दा, सलुम्बर, केलवाड़ा के साथियों का साथ मिला। हेडआॅफिस से संबंध रखने वाले अम्बा लाल जी भी इसी कमरे में थे। बाथरूम में बहुत अच्छा गाते है। शाम को दो घंटे के लिए घूमने का मौका मिला। भास्कर जी, संजय जी, राजेश जी, हिरा लाल जी, जितेन्द्र जी, महेन्द्र जी व रमेश जी के साथ किले पर स्थित काली मां के मंदिर गए, वहां से कीर्ति स्तम्भ होते हुए लौट आए। थोड़ा समय था तो मैं निकल पड़ा अतिथिगृह का मुहायना करने। कमरों के बाहर पहुंचा, कमरों को देखा, बाहर चस्पा नामों को पढ़ा, इस व्यवस्था ने मुझे चैंका दिया। 
सांस्कृतिक कार्यक्रम आरम्भ होने की घोषणा हुई तो साथ में यह भी घोषणा हुई कि पहली प्रस्तुति गोगुन्दा की है। हमारे ग्रुप ने प्रस्तुति दी, सबको अच्छी भी लगी। आपने तालियां बजाकर उत्साहवर्धन किया इसके लिए धन्यवाद। 
कृष्णा जी ने हारमोनियम बजाते हुए गणपति वन्दना की, उनका यह रूप अच्छा लगा। मैं भूल रहा हूं, कैम्प के शुरूआत में कैम्प के उद्देश्य इत्यादि के बारे में जिस तरह से एक गतिविधि के माध्यम से बताया गया, वह तरीका मैंनें पहली बार देखा। राजीव जी, संजय जी व . . . क्या नाम है उनका ? हां याद आया जैनब अली, ने बातचीत करते हुए संदर्भ रखे। ये बेजोड़े तरीका था। 
वहीं दिलीप जी गमेती व रमेष जी बुनकर की काॅमेड़ी तो संजय जी चित्तौड़ा व जितेन्द्र जी जैन का नृत्य जोरदार था। आभा जी की ड्रेस भी किसी मायने में कम नहीं लगी मुझे और उनकी गंभीरता . . . उनकी गंभीरता के सामने तो हिमालय को भी कमतर समझता हूं मैं। 
कार्यशालाएं . . . कार्यशालाएं न होकर परीक्षालय थी। कार्यशालाओं में जो कुछ हुआ उससे हकीकत सामने आई। 
निजी महत्वाकांक्षा का रखा ध्यान 
एक सत्र में राजीव जी ने कहा कि कोई भी व्यक्ति अपने केंद्र के या अन्य किसी व्यक्ति से उसके बारे में कुछ सकारात्मक विचार रखना चाहता है तो रख सकता है गर विचार रखने का अवसर नहीं मिल रहा है तो वह उसे व्यक्ति से व्यक्तिगत मिलकर अपने मन की बात कह दे। राजीव जी को मैं अपने मन की बात कहना चाहता था लेकिन समय नहीं मिला। इस मंच के माध्यम से मैं राजीव जी तक एक बात पहुंचाना चाहता हूं कि - राजीव जी, पुरस्कृत करने की श्रृंखला के दौरान आपने जो एक निर्णय लिया वह बहुत महत्वपूर्ण था, आपके उस कदम से वहां मौजूद हर शख्स प्रभावित हुआ होगा लेकिन मैं सर्वाधिक प्रभावित हुआ। अंतिम सत्र जिसमें अगले एक दशक में आजीविका ब्यूरो क्या करना चाहता है, इस हेतु आगामी योजना बताई जानी थी। सत्र से पूर्व आपने कुछ साथियों को इशारा कर बाहर बुलाया, उनसे चर्चा की और उन्हें मंच से बोलने के लिए तैयार किया। वे मंच पर आए और आगामी एक दशक की योजना के बारे में बताया। आपके इस तरीके से भी मैं बहुत प्रभावित हुआ। उभरते नेतृत्व को दिशा देना व नेतृत्व उभारना कोई आपसे सीखे। प्रिंट, इलेक्ट्राॅनिक व वेब पत्रकारिता क्षेत्र से जुड़े मेरे साथी मेरे आजीविका ब्यूरो के साथ जुड़कर काम करने की स्थिति को आश्चर्य से देखते है। वे कहते है कि मैं गलत कर रहा हूं लेकिन आप जैसे लोगों के साथ काम करने को अपना सौभाग्य समझता हूं। मुझे लगने लगा है कि यहां आकर मैंनें कोई गलती नहीं की है। 
आपको बोरियत महसूस ना हो इसलिए ऐसी गंभीर बातों को यहीं पर विराम देता हूं। स्टाप कैम्प के दौरान एक खास बात रही जो मैं जीवन में कभी भूल नहीं पाउंगा। मैं अपने ट्रावेल बैग में आवश्यक सामान ले गया था। उसमें ट्वाॅयलेट किट, कपड़े, जूते, स्लीपर इत्यादि थे। कमरा नम्बर 115 में जाने के बाद मैंनें बैग से सबसे पहले अपनी स्लीपर बाहर निकाली। पहले दिन मैं स्लीपर का उपयोग कर सका। दूसरे दिन सुबह मैंनंे स्लीपर को खोजा पर नहीं मिली, मैंनें सोचा शायद कोई साथी पहनकर गया होगा। डिनर के वक्त देखा कि हाॅल के बाहर स्लीपर पड़ी हुई है। मैंने बाहर खड़े रहकर नजर रखी लेकिन बहुत देर तक किसी ने नहीं पहनी तो मैं नजर रखते-रखते थक गया। भूख लग रही थी तो मैं भी डिनर लेने हाॅल में चला गया। डिनर लेने के बाद बाहर आकर देखा तो स्लीपर गायब थी। सोचा पहनने वाला साथी कमरे में ले गया होगा। कमरे में जाकर देखा तो वहां भी स्लीपर नहीं मिली। 
तीसरे दिन सुबह उस साथी को बहुत कोसा। हरेक कमरे में जाकर देखा लेकिन स्लीपर कहीं नहीं दिखी। चाय के दौरान हाॅल में जाने लगा तो बाहर स्लीपर पड़ी दिखी। बाहर खड़े रहकर फिर इंतजार किया लेकिन किसी ने नहीं पहनी। तब मैं भी चाय पीने हाॅल में चला गया, वहां गुड मार्निंग कहने में व्यस्त हो गया। बाहर आकर देखा तो स्लीपर फिर गायब थी। 
मुझे अपनी खोजी पत्रकारिता पर तरस आ रहा था। एक स्लीपरधारी साथी को पकड़ने में मैं सफल नहीं हो पा रहा था। फिर अपना जिद करो दुनिया बदलों का नारा भी तो अकेली स्लीपर को उठाकर कमरे में ले जाने से रोक रहा था। मैं उस शख्स से मिलना चाह रहा था। उससे शिकायत करने की बजाए अहसास कराना चाह रहा था कि भाई साब कोई भी व्यक्ति यात्रा करता है तो अपने साथ अपना पूरा घर साथ ले जाने की बजाए उन महत्वपूर्ण उपयोगी चीजों को ही साथ अपने साथ लेता जिनकी उसे सख्त जरूरत होती है। मुझे स्लीपर की सख्त जरूरत होती है, आप बिना इजाजत के कैसे किसी व्यक्ति की चीजों का उपयोग कर सकते है। 
चाय के बाद नाष्ते के दौरान हाॅल में जाते हुए मैंनें बाहर ध्यान से देखा लेकिन इस बार स्लीपर बाहर नहीं दिखी। नाष्ता लेने के बाद बाहर निकला तो स्लीपर पड़ी हुई थी। इस बार मैं बाहर पिल्लर के पास खड़ा हो गया। जो कोई यह हरकत कर रहा था, उसे अकेले में खूब खरी-खरी सुनाने की इच्छा थी लेकिन इस बार भी में चूक गया, किसी से बतियाने के बाद स्लीपर की ओर नजर डाली तो वे गायब थी। मनमसोस कर कमरे में चला गया। 
लंच के बाद हाॅल के बाहर स्लीपर पुनः नजर आई, इस बार भी मैं विफल रहा। 
इस तरह अंतिम सत्र के बाद तक स्लीपर मुझे नजर आती रही, मैं असफल निगरानी रखता रहा और स्लीपरधारी को नहीं पकड़ सका। 5-7 साथियों से तो मैंनें पूछा भी सही कि यार मेरी स्लीपर कौन पहन रहा है ? लेकिन किसी को पता नहीं था। 
विदाई हो चुकी थी, लोग हाॅल से बाहर निकल चुके थे। सभी ने अपने कमरे भी खाली कर दिए थे और अतिथिगृह से बाहर निकल चुके थे, मेरी स्लीपर संदिग्ध अवस्था में सेठ सांवरिया के मंदिर के पास पड़ी थी। मैंनें चुपचाप उन्हें उठाया और बैग में धर कर रवाना हो गया। 
कोई मेरी स्लीपर पहनकर घूमता रहा, मुझे इस बात की कोई तकलीफ नहीं है, मुझे मलाल है इस बात का कि मैं यह पता नहीं लगा पाया कि आखिर मेरी स्लीपर किसने पहनी ? पता नहीं लगा सका, शायद कैम्प में नए साथियों से मिलने, बातें करने में इतना मस्त था।
अशोक झा साब कहां गए वो नजर नहीं आए ?

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