Saturday, March 16, 2019

गुरू बिन गौर अंधेरा - 1 : बंशी महाराज की पाठशाला में तैयार हुई खेंप का एक नमूना हूं मैं


कबीरा जब हम पैदा भये, प्ले स्कूल थी नाय,

चलने लगे पैरों पे तो भेज दिए गए पाठशाला माय।

मैंनें अपनी पढ़ाई उस पाठशाला से आरम्भ की, जहां ज्ञान को मापने का पैमाना परीक्षा परिणाम वाला कागज का टुकड़ा नहीं था . . . 40 तक पहाड़े बिना देखे फुल कांफिडेंस से 30-40 बच्चों के बीच मारसाब के सामने बोल लेते, हिन्दी में बोले हुए को सुनकर लिख लेते और बंशी महाराज कह देते - शाबास . . .। बस यह शाबासी ही परीक्षा का परिणाम थी।


ऐसे थे बंशी महाराज - बंशी महाराज लगभग 60-65 के रहे होंगे तब। सिर के उपर का भाग एकदम बंजर था। चारों ओर सफेद व हल्के काले बाल। सफेद जग चेहरा, शायद तब भी रोजाना दाढ़ी मूंढ़वाते थे। कभी चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ नहीं देखी। सफेद कुर्ता व सफेद धोती। चौड़े होकर चलते थे, इसलिए नहीं कि दंभी थे बल्कि शायद पैरों या घुटने में तकलीफ थी। धीरे-धीरे चलते थे। रास्ते में जो भी मिलता उससे राम-राम, हरिओम कहते थे और लोग उनका बड़ा सम्मान करते थे।

80 के दशक में प्राईवेट स्कूल नहीं हुआ करते थे, गांव में तीन सरकारी विद्यालय थे। दो विद्यालय उला बसस्टेण्ड पर और एक विद्यालय पेला बसस्टेण्ड के पास। उला बसस्टेण्ड पर स्थित दो विद्यालयों में से एक प्राथमिक था, जिसमें बालक-बालिकाएं साथ पढ़ते थे, दूसरा है उच्च माध्यमिक विद्यालय। जिसमें कक्षा 6 से 10 तक केवल बालक पढ़ते है और उसके बाद 11 व 12वीं में बालक-बालिकाएं साथ पढ़ते है। तीसरा है, बालिका माध्यमिक विद्यालय, जो कि पेला बसस्टेण्ड के समीप जाटों का मोहल्ला में स्थित है।

गांव में दो बसस्टेण्ड है, एक को उला बसस्टेण्ड (गंगापुर की ओर से जाने पर पहला वाला बसस्टेण्ड) व दूसरे को पेला बसस्टेण्ड (गंगापुर से रायपुर जाते समय कोशीथल मुख्य बसस्टेण्ड से आगे वाला दूसरा बसस्टेण्ड) कहते है।

जब मैं चलने-फिरने लग गया मतलब 3-4 साल हो गया तो मोहल्ले के बच्चों के साथ मुझे भी बंशी महाराज की स्कूल में भेजा जाने लगा। एक प्लास्टिक का थैला पकड़ा दिया जाता था, जिसमें एक पट्टी (ब्लैक स्लेट) व बर्तन (सफेद चॉक) होते थे। मेरे सिर पर लड़कियों की तरह लम्बे बाल थे, जिन्हें कभी-कभी मेरी मां और कभी-कभी हमारे पड़ौस वाली लक्ष्मी बाई तेली व लक्ष्मी बाई नटराज गूंथ कर जुड़ा बना देती थी। मैं अपने मोहल्ले के अल्लामों के साथ बंशी महाराज की स्कूल (पाठशाला) में जाने लगा। तब मेरा पक्का दोस्त लेहरूनाथ रावल था। हम दोनों आते वक्त अकसर साथ आते थे, मेरे पाप्पा मुझे कुछ पैसे देते थे, कभी 5 पैसे, कभी 20 पैसे तो कभी-कभी 50 पैसे। 50 पैसे में जेब भर जाए इतनी मिट्ठी गोलियां आ जाती थी। गढ़ से निकलकर घर जाते समय मुख्य बाजार में मोहन लाल जी सेठिया की दूकान के ठीक सामने मीठा लाल जी मेहता की दूकान हुआ करती थी। वे अपनी दूकान के चबूतरे पर चुम्बक, बर्तन, ईमली और खट्टी मिट्ठी छोटी व बड़ी गोलियां रखते है, ये ही हमारे लिए केडबरी, एल्पनलिबे, किस्मी हुआ करती थी। मैं मिठा लाल जी की दूकान से ही खरीदी करता था, वे बोलते कम थे पर एक-दो गोली ज्यादा दे देते थे। वो इसलिए भी मुझे अच्छे लगते कि पहली बार जब मैं उनकी दूकान से गोलियां लेने गया तब उन्होंने मुझे पूछा - तू म्हारे प्यार जी रो भायो है रे ? वो मेरे पाप्पा को जानते थे, ये जानकर मुझे खुशी हुई और मिठा लाल जी मुझे अपने-से लगने लगे।

अब न तो मोहन लाल जी सेठिया की वो दूकान रही और ना ही मिठा लाल जी मेहता की दूकान। हां दोनों की दूकानें और वो बाजार का दृश्य मेरी दृष्टिपटल पर अभी भी ज्यों का त्यों छाया हुआ है।

पक्का दोस्त लेहरूनाथ रावल भी महादेव का भक्त हो गया और उनका प्रसाद ग्रहण करते करते न जाने अब किस दशा में है।

हमारे पूर्वज जैसलमेर से पलायन कर कोशीथल आए थे, सो हमारे कुल जमा तीन-चार ही परिवार है गांव में। सभी भाटों के मोहल्ले में रहते है, जिसमें भाट परिवार एक भी नहीं है :)। हम बच्चे भाटों के मोहल्ले से निकलकर आण (आसण-जहां नाथ सम्प्रदाय के घर होते है) से होकर बाजार में होते हुए गढ़ परिसर में पहुंचते थे।

धीरे-धीरे गांव के लोग, बाजार के लोग, गढ़ के लोग, बंशी महाराज की पाठशाला में पढ़ने वाले मेरे सहपाठी और मोहल्ले में मेरे खेलने वाले मेरे साथियों से मिलकर मेरे जीवन जीने का दायरा बढ़ता जा रहा था, और ये सब मेरे दिलोदिमाग में जगह बनाते जा रहे है। कुछ सकारात्मक तो कुछ नकारात्मक . . . .

बंशी महाराज की स्कूल का दृश्य :

मेरा गांव मेवाड़ रियायत का एक ठिकाना था। चुण्ड़ावत राजपूत यहां के ठिकानेदार थे। आजकल अपर प्राइमरी की एक बुक में मेरे गांव का जिक्र आता है, जिसमें ठिकाने की ठकुराइन द्वारा मेवाड़ रियासत की राजधानी उदयपुर के महाराजा के आव्हा्न पर युद्ध में योगदान दिया। ठिकाने के समय से ही गांव में एक गढ़ है। गढ़ के द्वार के समीप गढ़ परिसर के अंदर हिंगलाज माता का मंदिर है, जो चुण्ड़ावत राजपूत परिवारों की ईष्ट देवी है। हालांकि गांव के सभी जातियों के लोग हिंगलाज माता को मानते है, और यदाकदा मंदिर में दर्शन व पूजा-अर्चना करने आते है। गढ़ परिसर में प्रवेश करने के साथ ही दांयी ओर बड़ा ऊंचा चबूतरा है, जिसकी सीढ़ियां चढ़ने के बाद चबूतरे पर होते हुए आगे मंदिर में प्रवेश किया जाता है। इस मंदिर व चबूतरे के बगल में एक अहाता है। जिसमें तब कच्ची फर्श हुआ करती थी। इस अहाते और चबूतरे के बीच एक नीम का बड़ा वृक्ष था, शायद अब भी होगा। इस वृक्ष की छाया में बंशी महाराज की स्कूल चलती थी। बंशी महाराज के स्कूल में कोई किताब नहीं हुआ करती थी, वे वर्णमाला व गिनती तथा पहाड़ें सिखाते थे। कुर्सी पर बैठे बंशी महाराज के हाथ में हर वक्त एक छड़ी रहती थी। वे बच्चों को खड़ा करके उनसे पहाड़े बुलवाते थे। पाया, आधा, पूण्या, ढ़ाया जैसे पहाड़ें भी पढ़ाते थे। एक ढ़ायो ढ़ायो, दो ढ़ाया पांच। इस प्रकार पहाड़ें बोले जाते थे। मैं भी याद करने और बोलने का अभ्यास करता था।
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मुझे मालूम है हम दो बच्चे बंशी महाराज से काफी डरते थे। एक बार मेरे पास एक लड़की बैठी हुई थी, उसने अपनी पट्टी से मेरे सिर में ठोक दी। मैंनें भी वापस ठोक दी। मैं बंशी महाराज से इतना डरता था कि मैंनें उनसे शिकायत नहीं की लेकिन जैसे ही मैंनें उस लड़की के ठोकी तो उसने बंशी महाराज से मेरी शिकायत कर दी। बंशी महाराज ने मुझे बहुत की हेय की दृष्टि से देखा। मैं याद करता हूं तो उनकी वो हिकारत भरी सूरत आज भी मेरी आंखों के आगे छा जाती है। उन्होंने मुझे अपने पास बुलाकर मेरे हाथ आगे करवाए और छड़ी से दो-तीन मार दी। मेरे हाथ तो सामने ही रहे; छड़ी की मार झेलने के लिए; लेकिन आंखों से अश्रुओं की धाराएं बह निकली। तब आंखों से जैसे कोई धुंधलापन साफ हो गया, मानो आंसूओं से आंखों में छपी कोई ऐसी तस्वीर धुल गई हो, जैसे पानी के फव्वारे से दीवार पर छपी हुई तस्वीर धुपती है। साथ ही एक दूसरी तस्वीर उभरी जिसमें वो कुर्सी पर बैठे हुए है और मैं उनके पास खड़ा हूं, वे मेरे कंधों पर हाथ रखे हुए है और मुस्कुराते हुए देख रहे है। मैं जिद्दी आज या कल का नहीं हूं, तब का ही हूं। इससे ही समझ लिजिए कि जब तक बंशी महाराज के पास पढ़ा, उसी समय में मैंनें इस तस्वीर को हकीकत बना दिया।
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