Thursday, October 9, 2014

हे देवेन्द्र . . . तेरी मौत पर तो इन्द्र भी रोया !


  • लखन सालवी (क्रोध पर काबू के लिए प्रयासरत तेरा एक मित्र)


हे देवेन्द्र . . . मैं तुम्हारा बहुत सम्मान करता था, तुम्हारी कर्मठता, कर्तव्यपरायणता व जज्बातों के कारण ही तो तुम से जुड़ाव हुआ था। गोगुन्दा आगमन के साथ ही फिल्ड में जाने का पहला मौका भी तुम्हारे साथ ही मिला। 26 जून के सम्मेलन की सूचना करने अपन रात की 10 बजे तक ऊंचे पहाड़ों पर बसे आदिवासी परिवारों के लोगों को कर रहे थे। मुझे उम्मीद नहीं थी कि मैं जहां काम करने जा रहा हूं वहां इतना जुझारू साथी मिलेगा। कुछ ही दिनों के अंतराल में महसूस हो गया कि तुम एकचित्त मानस नहीं हो। पल में तौला-पल में माशा... हो जाते हो। काम भी अनेक करते हो। तुम्हारे प्लाॅट की कहानी भी तुमने बताई। तुम्हारे दिल में कितना दर्द था ये तुमने चेहरे पर या आंखों में कभी जाहिर नहीं होने दिया। एक दिन हंसते-हंसते दिल दहलाने बात तुमने कही तो मैंनें तुमसे एक वादा लिया और तुमने सहर्ष दिया... लेकिन तुमने वो वादा तोड़ दिया।

तुम्हारा वादा जाता रहा . . . तो तुम्हारे लिए मेरे मन में जो सम्मान था वो अब नहीं रहा और मैं ‘‘आप’’ से ‘‘तुम’’ पर आ गया। तुम्हारे गुस्से की ऐसी की तैसी . . . अब तुम ऊपर बैठ कर नीचे का तमाशा देख रहे हो ? कैसा लग रहा है ये तमाशा ? यार तूने खुश के बारे में भी नहीं सोचा। माता-पिता, भाई, भार्या के बारे में भी नहीं सोचा ? तेरा छोटा भाई बहुत तड़फा रे देवेन्द्र . . .। पिताजी भी बहुत रोये, माताजी का तो रो-रोकर बुरा हाल हो गया। तेरे पिताजी कितने अच्छे इंसान है! तेरे आखिरी समय की बातें हमसे साझा कर रहे थे, जैसे कृष्ण-सुदामा का पाठ कर रहे थे. . . आ हा.. हा.. हा, कितनी चाह रखते थे तुम्हारे प्रति। आसपुर, गोगुन्दा, बरवाड़ा, सायरा, उदयपुर केद्रों से सभी साथी तुम्हारे शव की यात्रा में आए। जो नहीं आ सके वो मोबाइल पर काॅल करके पल-पल की खबरें लेते रहे। तुम्हारी मौत पर श्मसान में सबने खूब आंसू बहाए, कोई आंखों से आंसू बहाकर रोया तो कोई दिल से रोया... और तो और तुम्हारी अंत्येष्ठि पर देवों का देव इन्द्र भी रोया। मगर मैं नहीं रोया, ना दिल से.. ना ही आंखों से। 

परन्तु हे देवेन्द्र, हे परम आत्मा. . . तुम्हारी सहृदयता व स्वस्थमना की बातें सभी कर रहे थे। हे मित्र मैं तुम्हारे जोश, तुम्हारे जज्बात, तुम्हारी कर्तव्यपरायणता को सलाम करता हूं . . . मुस्कुरा मत... तेरे अंतिम कर्म (लास्ट वर्क) पर मैं तूझे लानत भेजता हूं। तेरे निर्जीव शरीर को जब जलाया तो कई लोगों ने तुझे गालियां भी दी, सुनी की नहीं। तेरे इस कर्म को किसी ने नहीं सराहा।

हे देवेन्द्र . . तेरी बहुत याद आएगी यार, अब मैं स्टेपलर, पचिंग मशीन, स्केल, फाइलें, फेविस्टीक, रिपोर्ट फाॅरमेट इत्यादि किससे मागूंगा ? और कौन देगा ? सुबह से दृष्टि पटल पर तेरी ही सूरत फिल्म की तरह चल रही है। देख ना सब सो गए है, शांति, लालू, विनय, मोहित, दिलीप सभी सो गए है। मुझे नींद ही नहीं आ रही है। 

बहुत जिंदाबाद, जिंदाबाद करता था तू। लोगों को जिंदाबाद का अर्थ भी बताता था ना, अब लोग मुझसे पूछेंगे तो क्या जवाब दूंगा उन्हें मैं। जब मुर्दा ही होना था तो लोगों को क्यों जिंदाबाद का अर्थ समझाता था। यार तू तो मुक्ति पा गया, मुझे क्यूं सुक्तियों में उलझा गया।

तू मुझे मारसाब कहता था तो कीक लगती थी। आई मिस यू देव  :(


हमेशा देर कर देता हूँ मैं, हर काम करने में.

जरुरी बात कहनी हो, कोई वादा निभाना हो,
उसे आवाज देनी हो, उसे वापस बुलाना हो.
हमेशा देर कर देता हूँ मैं…..

मदद करनी हो उसकी, यार को ढ़ाढ़स बंधाना हो,
बहुत देहरीना रस्तों पर, किसी से मिलने जाना हो.
हमेशा देर कर देता हूँ मैं…..

बदलते मौसमों की सैर में, दिल को लगाना हो,
किसी को याद रखना हो, किसी को भूल जाना हो.
हमेशा देर कर देता हूँ मैं…..

किसी को मौत से पहले, किसी गम से बचाना हो,
हकीकत और थी कुछ, उसको जाके ये बताना हो.
हमेशा देर कर देता हूँ मैं….. (मुनीर)

अंत में . . .जो जिंदा है उनके लिए -

नर हो न निराश करो मन को
आज का वातावरण कुछ ऐसा है जो सकारात्मक कार्यों में लगे लोग अक्सर निराशा की तरफ धकेलता है। ऐसे में भारत के राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्तजी की ये पंक्तियाँ आशा की नई किरण जगाती है। कृपया इन्हें जीवन में उतारें। 

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