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Lakhan Salvi : 9828081636 |
बंशी महाराज की पाठशाला में आखर ज्ञान और गिनती व पहाड़ें सीख लिए तो पिताजी ने मुझे उला बसस्टेण्ड वाले राजकीय प्राथमिक विद्यालय में भर्ती करवा दिया। इस स्कूल का वो स्वर्णिम समय था। 35 वर्ष की आयु में से देखा जाए तो सबसे अच्छा समय वो ही था जो इस स्कूल में बीता। स्कूल में उत्तर पूर्व में पूर्व से पश्चिम की ओर क्रमवार बड़े-बड़े कमरे बने हुए थे, जिनके आगे बरामदा था और केंद्र में बड़ा सा चबूतरा, जिसे हम स्टेज कहते थे। स्टेज के आगे बहुत बड़ा ग्राउण्ड, जिसके एक कोने में कब्बड्डी का व स्टेज के ठीक सामने खो-खो का ग्राउण्ड तथा उसके बगल में ओपन पानी का होद (टेंक) था। टैंक को पानी पीने की टंकी से एक ओपन कच्ची नाली के द्वारा जोड़ रखा था, ताकि टंकी से व्यर्थ बहने वाला होद में एकत्र हो जाए। इस टैंक में कछुएं, केकड़े और मैंढ़क तैरते दिखाई देते थे, जिनसे हम बालमन बहुत खेलते थे।
जब मैं बंशी महाराज की पाठशाला में पढ़ता था तब हम गांव के बीच हमारे मोहल्ले में रहते थे। मुझे प्राथमिक विद्यालय में भर्ती करवाने के दौरान ही पिताजी ने बसस्टेण्ड के पास व राजकीय प्राथमिक विद्यालय के भवन के एकदम समीप मकान बना लिया था। यह 1987-88 की बात है।
प्राथमिक स्कूल के चारों ओर आदमकद दिवारें थी। मुख्यद्वार पर लोहे का बड़ा गेट था। इस स्कूल में मैं पहली से लेकर 5वीं तक पढ़ा। ब्लू कलर का शर्ट और खाकी कलर की हाफ पेंट, ये स्कूल का ड्रेस कोड़ था। स्कूल में ये गुरूजन थे और उनसे क्या सीखा और गुरूजनों के साथ क्या वाक्ये हुए पढ़िए इस भाग में -
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यह आज की तस्वीर है, स्कूल के बाहर ऐसी गंदगी पहले नहीं रहती थी |
रूस्तम जी (प्रधानाध्यापक) : ये मस्जिद के पास रहते थे। बाद में भीलवाड़ा चले गए। हम बच्चों में इनको लेकर बड़ा भय था। बुलंद आवाज थी, हम सभी उनसे काफी डरते थे। पर मैंनें कई मौको पर देखा वो क्रूर नहीं थे। वे मन से स्नेही थे। बच्चों पर नियंत्रण के लिए वे रोद्र रूप दर्शाये रखते थे।
सीख - कहां, कब और कैसा व्यवहार करना।
शिवप्रसाद जी शर्मा - (रायपुर वाले) : रायपुर से रोजाना अपडाउन करते थे। एकदम सफेद जक्क पेंट-शर्ट पहनते थे। शर्ट सलीके से इन रहती थी, ब्लैक बेल्ट लगाते थे। उनकी आवाज बड़ी तेज थी लेकिन वे हंसते भी खूब थे। बच्चों को पढ़ाने के साथ-साथ खो-खो, कब्बड्डी जैसे कई खेल सिखाते थे। शायद वे शारीरिक शिक्षक थे। सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजनों की जिम्मेदारी उनके कंधों पर होती थी इसलिए वे मेरे सबसे प्रिय थे।
सीख - नैसर्गिक चरित्र नाम की चिड़िया भी होती है, जीवन को केवल नियमों में ही नहीं बांधे।
सोहन जी बागरिया - (गंगापुर) : ये गंगापुर के मैलोनी के थे। तात्या टोपे के जैसी मूंछ रखते थे। इनके संदर्भ कहा जाता था कि ये कड़ाके की सर्दी में भी ठण्डे पानी से नहाते है, रोजाना नहाते है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमने टूर्नामेंट के दौरान देखा जब एक साल हमारी स्कूल की कई खेलों की टीमों को काला का खेड़ा में आयोजित टूर्नामेंट में ले जाया गया था। ये पेंट-शर्ट (शर्ट इन), बेल्ट व जूते पहने हुए ही आते थे। नियमित जीवन शैली के ये तगड़े उदाहरण थे। जो बच्चे पढ़ते नहीं थी उनकी ये खूब सूताई करते थे। मैं इनसे काफी डरता था। ये खानाबदोश बागरिया समाज के पहले ऐसे व्यक्ति थे जो अन्य समाजों के लोगों पर भी अपनी गहरी छाप छोड़े हुए थे। ये पढ़ाने के साथ गेम्स भी सीखाते थे।
सीख - नित नियम का जीवन में महत्व।
लक्ष्मीकांता जी पालीवाल - (कोशीथल) : अध्यापक गणों में तीन सबसे बड़े थे। रूस्तमअली जी, असगर अली जी और लक्ष्मीकांता बेनजी। लक्ष्मीकांता बेनजी का हम बच्चों में खौफ रहता था। उनका रवैया स्कूल में ठीक वैसा था जैसा घर पर दादी का होता है। वे बोलती सबसे लास्ट वाले कमरे में और आवाज आती सबसे फर्स्ट कमरे में, मल्लब इतनी तेज आवाज थी उनकी। मैं एक बार उनसे नाराज हो गया, वो नाराजगी आज तक मन में है। दरअसल, एक दिन नहाकर बालों में बिना तेल लगाए मैं स्कूल चला गया, थोड़ा लेट भी हो गया था इसलिए प्रार्थना के समय लेट आने वालों की लाइन में खड़ा रहना पड़ा। लक्ष्मीकांता बेनजी लेट आने वालों का रिमाण्ड ले रही थी, वो सजा देने के नाम पर कान खिंचती थी। मेरा नम्बर आया तो - बोली बालों में तेल क्यों नहीं लगाया ? मैं बोला - भूल गया बेन जी। तब उन्होंने मेरे कान खिंचते हुए मेरे बड़े पाप्पा के लड़के लीलाधर को आवाज देकर बुलाया, उसके बालों में ज्यादा तेल दिखाई दे रहा था। बेन जी हम दोनों के सिर आपस में रगड़वाए, जैसे सांड एक दूसरे से लड़ते है, एक दूसरे को सिर लगाकर . . . ठीक वैसे ही। उस दिन मुझे बहुत शर्मन्दगी महसूस हुई। ये बात शायद न तो लक्ष्मीकांता बेनजी को याद होगी और ना ही लीलाधर या अन्य देखने वालों को लेकिन मुझे पूरा दृश्य साफ-साफ याद है।
सीख - टेक ओवर करना, कैप्चर करना।
असगर अली जी - (रायपुर वाले) : ये रायपुर के थे। बच्चों को सजा देने की सबकी अलग-अलग स्टाइल होती है, ये कांख के नीचे बाजू के अंदर की तरफ चुंटिया (चिमटी काटना) भरते थे। पर उनका सानिध्य बहुत अच्छा लगता था।
सीख - अपने काम को प्राथमिकता देना।
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जब मैं गुरूजनों को भजन सुनाकर भाग जाया करता था
हीरा लाल जी सुथार - (रायपुर वाले) : सबसे लम्बे मारसाब थे ये। लम्बे और पतले दूबले भी। हर वक्त हंसते रहते। चलते ऐसे जैसे उचकते उचकते चल रहे हो। हाथ एक छोटा पर्स रहता था इनके। ये लकड़ी की स्केल से पिटाई करते थे। मारते तो ऐसा लगता हल्के से मार रहे है लेकिन लगती बहुत तेज थी।
बहुत दुःख के साथ बता रहा हूं कि एक बार मैंनें इनके साथ बदतमिजी कर दी। दरअसल मेरा स्वभाव बचपन से ही ऐसा रहा है कि मैं गलत को बर्दास्त नहीं कर सकता। शायद तब मैं कक्षा 4 या 5 में पढ़ता था। एक दिन इंटरवेल के बाद हिरा लाल जी की क्लास थी। मेरे पास मांगी लाल जी सालवी का रमेश सालवी बैठा हुआ था। हिरा लाल जी हम चुप रहने की चेतावनी देकर किसी काम से कक्षा से बाहर चले गए, वापस आए तब रमेश मुझसे कुछ कह रहा था। यानि मैं कुछ नहीं बोल रहा था, रमेश ने शायद मुझसे स्केल मांगा था। इधर हिरा लाल जी क्लास में एंटर हुए - रमेश को बोलते हुए और मुझे उसे स्केल देते हुए देख लिया और गुस्से में आकर मेरी हथेलियों पर स्केल से जड़ दी। मैं गुस्से से आग बबूला हो गया और दौड़कर क्लास के दरवाजे से बाहर निकल कर वापस क्लास की ओर मुड़ा, हीरा लाल जी को भजन सुना दिए और भाग गया। मल्लब मेरा कहना था कि मैं तो नहीं बोला था ना। फिर मुझे क्यों मारा ? मेरे साथ कभी अन्याय हुआ तो फिर मैंनें ये नहीं देखा कि अन्याय करने वाला कौन है। मैंनें अपने सामर्थ्य के अनुसार विरोध किया। (भाग कर मैं कहां जाता था और आगे क्या होता था, यह जानने के लिए आप पढ़ते रहे मेरा ब्लॉग)
सीख - हंसते रहो, मस्त रहो।
कौशल्या जी पालीवाल (खैराबाद के) : कौशल्या बेनजी। ये सबसे सीधे साधे थे। बैलेंसिंग। ना अधिक लोकप्रिय और ना ही शून्य। इतने दुबले पतले की धक्का लग जाये तो नीचे गिर जावे। न कभी बच्चों को मारते देखा न ही डांटते डपटते। कोई गलती करता तो उसे ये हिकारत भरी नजरों से देखते थे, बस यह ही काफी था, बच्चों पर नियंत्रण के लिए।
सीख - अपने काम से काम रखो।
पहली व दूसरी क्लास में इन अध्यापकगणों ने ही हमें पढ़ाया। शायद में तीसरी कक्षा में आया तब अध्यापक सलेक्शन हुए थे, और गांव के ही सुरेश जी खटीक व धन्ना लाल जी रेगर, ये दो अध्यापक नए आए।
धन्ना लाल जी रेगर - (कोशीथल वाले) : नाटे कद के धन्ना लाल जी मारसाब सरल स्वभाव के थे। शर्ट को पेंट में इन किए हुए धीरे-धीरे चलते आते थे।
धन्ना लाल जी मारसाब ने बहुत ही कम समय में बच्चों में मन जगह बना ली थी। वे बहुत अच्छा पढ़ाते भी थे। मेरी ही बुरी किस्मत रही कि मेरे प्रिय अध्यापक होने के बावजूद भी मैंनें उनके साथ बुरा बर्ताव कर दिया। इसके पीछे भी कारण वहीं रहा गलत का विरोध करने का। मैं तीसरी में पढ़ता था, धन्ना लाल जी दूसरे या तीसरे कालांश में पढ़ाने आए थे। पढ़ाने के बाद बच्चों को रिडिंग करने का बोल के वे किसी काम से बाहर गए। कक्षा के बच्चे जोरजोर से बातचीत करने लग गए जिससे हो हल्ला होने लगा। फिर अचानक धन्ना लाल जी कमरे आए, दरवाजे के सीध में मैं बैठा हुआ था, उन्होंने गुस्से में आव देखा न ताव देखा मेरी हथेलियों पर बांस की लकड़ी से मार दी। बांस की लकड़ी का एक तंतु मेरी हथेली में घुस गया, जिससे मुझे भारी पीड़ा हुई। मुझे भयंकर गुस्सा आ गया, इतना गुस्सा पहले कभी नहीं आया। मुझे मारकर धन्ना लाल जी ब्लेक बोर्ड के पास कुर्सी पर जाकर बैठ गए। क्लास में सन्नाटा पसर गया। मैं अचानक उठा, दरवाजे के बाहर गया और अंदर झांकते हुए धन्ना लाल जी मारसाब को भजन सुना दिए और भाग गया। (भाग कर मैं कहां जाता था और आगे क्या होता था, यह जानने के लिए आप पढ़ते रहे मेरा ब्लॉग)
सीख - सादगी व शांतचित्त।
सुरेश जी खटीक - (कोशीथल वाले) : बड़े डिप्लोमेटिक परसन। डिप्लोमेटिक की परिभाषा तो मुझे नहीं आती थी लेकिन मेरे जीवन में फर्स्ट परसन सुरेश जी खटीक ही थे जिनसे मैंनें डिप्लोमेसी को समझा। इनकी मुझे एक दो क्लासें ही याद है। जोर जोर से बोलकर पढ़ाते थे और ऐसे पढ़ाते थे कि हम बच्चे यह महसूस कर लेते थे कि वे किसी ओर को बताने के लिए हमें इस तरह पढ़ा रहे है। इसे आप या सुरेश जी मारसाब हम बच्चों का एन्ज्म्पशन भी कह सकते है।
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स्कूल के अंदर का दृश्य (यह चित्र आज ही लिए गए है।) |
तो ऐस थे मेरे गुरूजन। और उनसे ऐसी प्रारम्भिक शिक्षा मैंनें प्राप्त की। जो वाकये मैंनें बताए है शायद गुरूजन उन्हें भूल चुके होंगे। मुझे इसलिए याद रहे कि मुझे उनके व्यवहार से दुःख पहुंचा था और मेरे द्वारा किए गए व्यवहार से भी मुझे दुःख पहुंचा था। जब इतना दुःख पहुंचा तो वाकये याद रहना लाजमी भी है।
काकी जी - (कोशीथल वाले) : काकी जी, बोले तो श्याम जी तम्बोली की माता जी। स्कूल में करीब 200 बच्चे थे। रोजाना अंतिम कालांश के बाद व छुट्टी के पहले दलिया बंटता था। काकी जी दलिया बनाती थी। इतना स्वादिष्ट होता था पूछिए मत। अंतिम दो कालांशों के दौरान तो पूरे स्कूल में दलिये को खुश्बू फैल जाती थी। गेहूं के दलिए को तेल में भुनने के बाद पानी में पकाती थी काकी जी। जिन-जिन ने काकी जी के हाथ का दलिया खाया, मैं दावे के साथ कह सकता हूं वैसा स्वादिष्ट दलिया और कहीं नहीं खाया होगा। सब बच्चे बड़ा गोला बनाकर ग्राउण्ड में बैठ जाते थे। चार-पांच बड़े बच्चों को बांटने की जिम्मेदारी दी जाती थी। हम अपने साथ कागज का टुकड़ा रखते थे, जिस पर दलिया लेते थे और फिर चाव के साथ खाते थे।
मेरे कई नाम रहे। कई लोग लच्छु कहते, कई लक्ष्मण, तो कई लक्ष्मीकांत। मोहल्ले के कुछ लोग गणेश कैसे कहने लग गए, ये आज तक समझ में नहीं आया। मेरे नाम में लोचा भी इसी स्कूल से हुआ।
जब में 8-10 साल था, तब मेरे हाथ में मेरी जन्म पत्री लगी। किसी पंडित जी ने मेरे जन्म की तारीख और समय के साथ कई नाम लिखे हुए थे, उनमें से दो-तीन नाम ये थे - लक्ष्मण, लक्ष्मीकांत, लखन, लालकृष्ण, लक्ष्मीनारायण। जब मैं कक्षा 5 में था तब मन में सवाल उठा कि स्कूल के रजिस्टर मेरा नाम लक्ष्मी लाल कैसे हुआ ?
एक तथ्य है कि किसी भी बालक का नाम लक्ष्मीकांत, लक्ष्मी लाल, लक्ष्मीनारायण, लक्ष्मण, लखन, लच्छीराम होता है तो खासकर गांव में उसका सोर्ट नाम लच्छु हो जाता है। मैंनें अपनी तफ्तीश में पाया कि स्कूल के दौरान मेरा नाम लच्छु बताया गया था जिसे नाकांकनकर्ता ने अपनी सूझबूझ से लक्ष्मी लाल लिख दिया। मल्लब में लच्छु के नाम से स्कूल में घुसा और लक्ष्मी लाल बनकर स्कूल से निकला।
इस स्कूल में कौन-कौन थे मेरे दोस्त। सहपाठियों के साथ कैसा बीता मेरा समय और यहां क्या-क्या सीखा, कितना हुआ सर्वांगिण विकास . . . क्या असल जिन्दगी में मैं लक्ष्मी का लाल बन पाया ? पढ़ते रहिए मेरा ब्लॉग -