Sunday, June 18, 2023

तूफान से टकरा गए गोगुंदा के अधिकारी-कर्मचारी । Gogunda I Udaipur । Cyclonic Storm Biparjoy । Lakhan Salvi

  • लखन सालवी

आज 18 जून 2023 है। सुबह से मेरे व्हाट्सएप्प नंबर पर सड़कों पर गिरे हुए पेड़ों, बारिश के कारण ढ़हे हुए मकानों, ओवरफ्लो हुए जलाशयों व सड़कों, खेतों व राहों पर गिरे बिजली के खंभों के फोटो आ रहे थे। बाद में सड़क पर गिरे पेड़ों को हटाती जेसीबी मशीनें व खंभे खड़े करते बिजली विभाग के कर्मचारियों के फोटो आने लगे। दोपहर बाद एक फोटो आया, जिसमें देखा कि एवीवीएनल के एईएन वीरेंद्र कुमार मीणा रेनकोट पहने हुए एक खेत में खड़े है, कुछ कर्मचारी गिरे हुए बिजली के खंभे को खड़ा कर रहे है। दूसरे एक फोटो में एक जेसीबी मशीन की सूंड पर चढ़कर एवीवीएनएल का एक कर्मचारी बिजली के खंभे के तार ठीक करता हुआ दिखा। मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी और मैं व्हाट्एसप्प एकाउंट को खंगालता जा रहा था। अगले एक फोटो को डाउनलोड़ किया तो उसमें गोगुंदा-दादिया-मजावड़ी के ग्राम विकास अधिकारी सुरेंद्र कुमार नगलिया बारिश में भींगते हुए रास्ते में पड़े पेड़ की शाखा को उठाकर सड़क से दूर फैंकते हुए नजर आए। एक ग्रुप में आए फोटो को डाउनलोड़ किया तो उसमें एसडीएम हनुमान सिंह राठौड़ छाता लिए सड़क पर खड़े मिले, वे सड़क पर गिरे पेड़ को हटाने के लिए निर्देश दे रहे थे। फोटो से ही पता चला कि मजाम से बगडूंदा के बीच पेड़ गिरने से बिजली लाइन टूट गई। जेईएन गौरव मलिक टीम के साथ मौके पर पहुंचे थे और लाइन को दुरूस्त कर रहे थे। 

शुक्रवार शाम को शुरू हुई बारिश जारी थी, बाहर कहीं जाने का मन नहीं था। मैं अपने बेड पर लेटा व्हाट्सएप्प की दुनिया में गोते लगा था। फोटो देखते - देखते पाया कि बिपरजॉय चक्रवात के कारण आई आपदा से निपटने के लिए अधिकारी व कर्मचारी जी जान से जुटे हुए है। आमतौर पर आपदा से निपटने की जिम्मेदारी अधिकारियों व कर्मचारियों की ही होती है मतलब सरकारी तंत्र ही इसकी जिम्मेदारी उठाता है। एडीआरएफ, एसडीआरएफ सहित सैनिकों को आपदा से निपटते हुए कई बाद देख चुका है लेकिन जमीनी स्तर पर बरसती बारिश में अधिकारियों व कर्मचारियों को इस प्रकार काम करते हुए पहली बार देखा। यह सोचते हुए एक ग्रुप में घुसा ही था कि देखा लोग गोगुंदा के अधिकारियों व कर्मचारियों को धन्यवाद ज्ञापित कर रहे है और उनकी सराहना कर रहे है। 

तो कुल जमा, उपर लिखी बातों का सार यह है कि अगर कोई भी व्यक्ति पूर्ण ईमानदारी से अपना काम करें तो उसे देखकर लोग तारीफ करते है, सलाम करते है। और यह तीन का एपिसोड़ देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि लोग सब पर नजर रखते है और सब के कामों को समझते है। खैर, गोगुंदा के अधिकारी-कर्मचारी वर्ग ने इस बार पूरी ताकत व ईमानदारी के साथ तूफान का सामना किया और पूरी रणनीति के साथ किया। 


देखिए 15 जून 2023 को बिपरजॉय चक्रवात के गुजरात के कच्छ तट से टकराने की सूचना आम थी। सूचना यह भी थी कि कच्छ के बाद तूफानी हवाएं व बारिश गुजरात के साबरकांठा व बनासकांठा क्षेत्र से होती हुई राजस्थान में प्रवेश करेगी। मौसम विभाग ने चेतावनी दी थी कि 16 जून को राजस्थान के सिरोही, जालोर, पाली, बाडमेर व उदयपुर जिले सहित पश्चिमी राजस्थान में तूफानी हवाएं चलेगी और अंधेड़ के साथ बारिश भी होगी। मौसम विभाग की चेतावनी को उदयपुर जिला कलेक्टर ताराचंद मीणा ने गंभीरता से लिया और ताबड़ तोड़ बैठकें कर जिले के विभिन्न विभागों के जिला व उपखंड स्तरीय अधिकारियों को चेतावनी के बारे में बताते हुए उनकी छुट्टियां रद्द कर दी और सभी कार्मिकों व अधिकारियों को अपने-अपने मुख्यालय पर मुस्तैद रहने के निर्देश दिए। यही नहीं उन्होंने संभावित क्षेत्रों का दौरा कर अधिकारियों को आपदा से निपटने के पुख्ता बंदोबस्त करने के कड़े निर्देश दिए। जिला कलेक्टर से मिले निर्देशों के बाद सभी विभागों के अधिकारियों ने आपदा नियंत्रण को लेकर सोशल मीडिया के माध्यम से अपने-अपने क्षेत्रों में हेल्प नंबर शेयर किए। 


गोगुंदा एसडीएम हनुमान सिंह राठौड़ ने भी ब्लॉक स्तरीय अधिकारियों की बैठक लेकर आवश्यक दिशा निर्देश दिए। तूफान से सबसे ज्यादा चिंता विद्युत विभाग को थी। विभाग के सहायक अभियंता ने वीरेंद्र कुमार मीणा ने सोशल मीडिया पर 5 मोबाइल नंबर जारी कर कहा कि तूफान के कारण खंभे गिर जाने, लाइन टूट जाने या बिजली सप्लाई होने की दशा पर उन नंबर पर सूचित करें। 

इसके अलावा तहसील कार्यालय, एसडीएम कार्यालय, पंचायत समिति कार्यालय व पुलिस थाने में कंट्रोल रूम बनाए गए और इन कंट्रोल रूम के नंबर सोशल मीडिया व समाचार पत्रों के माध्यम से क्षेत्र के लोगों तक पहुंचाये गए। 

एक बात पर गौर करिएगा, जैसे ही किसी गांव के रास्ते मंे तेज हवा के कारण पेड़ गिरा तो इसकी सूचना मिलते ही कुछ ही देर में वहां जेसीबी मशीन पहुंची और पेड़ को रास्ते से हटा दिया गया। आखिर यह सब कैसे हुआ ? यह सोचने वाली बात है। दरअसल एसडीएम हनुमान सिंह राठौड़ ने 15 जून से पहले ही उपखंड क्षेत्र को कलस्टर में बांटकर कलस्टरवाइज जेसीबी मशीनों की व्यवस्था करवा दी थी। ताकि जिस भी कलस्टर में पेड़ गिरने, मकान गिरने या किसी भी कारण से मार्ग अवरूद्ध हो जाए तो उसे सुचारू किया जा सके।  


ऐसा ही बिजली विभाग के एईएन वीरेंद्र कुमार मीणा ने भी किया। उन्होंने अपने जेईएन के नेतृत्व में अलग-अलग टीमें बना ली। जैसे ही कहीं से खंभा गिरने या लाइन टूटने की सूचना मिलती तो संबंधित टीम मौके पर पहुंच जाती। भरी बरसात में भी टीमों ने बिजली की लाइनों को ठीक करने का कार्य किया। जिसे क्षेत्र के लोगों ने काफी सराहा। 


काम तो ग्राम विकास अधिकारियों, पटवारियों व अन्य कर्मचारियों ने भी कम नहीं किया। 100 बातों की एक बात . . . इस बार गोगुंदा के अधिकारी व कर्मचारी तूफान से टकरा गए।

Tuesday, February 18, 2020

न्यूजरूम में क्या होता है ? समझने के लिए पढ़िए ‘‘न्यूजमैन एट वर्क’’

(लेखक: लक्ष्मी प्रसाद पंत)
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प्रतिक्रिया : लखन सालवी -
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जब सोशल मीडिया के माध्यम से मुझे पहली बार पता चला कि दैनिक भास्कर के राजस्थान के एडिटर लक्ष्मी प्रसाद पंत जी की लिखी एक किताब ‘‘Newsman@work’’ का विमोचन किया गया है, तब से ही एक युवा पढ़ाकू व लिखाकू पत्रकार होने के नाते मैं इस किताब को पढ़ने के लिए उतावला हो गया। उतावलेपन के दो कारण थे। 

पहला कारण - लक्ष्मी प्रसाद पंत जी की लिखी किताब ‘‘हिन्दुस्तान का कब्रिस्तान’’ में मैं उनकी लेखनी से रूबरू हुआ था, जिसमें उन्होंने केदारनाथ त्रासदी की तथ्यात्मक, सधी हुई व मार्मिक रिपोर्ट पेश की थी। मुझे उम्मीद थी कि न्यूजमैन एट वर्क में भी मुझे वैसी लेखनी पढ़ने को मिलेगी। 
दूसरा कारण - मैं भी एक ग्रामीण पत्रकार हूं। लक्ष्मी प्रसाद पंत जी की किताब का टाइटल है ‘‘ न्यूजमैन @ वर्क’’। इस टाइटल को पढ़कर लगा कि इसमें न्यूज रिपोर्टरर्स के बारे में पढ़ने को मिलेगा।   

तो कुल जमा इन दो कारणों के चलते मैं इस किताब को पढ़ने के लिए उत्साहित था। विमोचन के कुछ दिनों बाद यह बुक अमेजन पर उपलब्ध हो पाई। जैसे ही पता चला कि अमेजन से किताब खरीदी जा सकती है तो तुरंत किताब बुक की और अंततः दो सप्ताहों के अंत में यह किताब मेरे हाथों में पहुंच ही गई। 17 फरवरी 2020 की रात 11 बजे बाद इस पुस्तक को पढ़ना शुरू किया और एक ही बार में इस पुस्तक को पढ़ भी लिया।

किताब के फ्रेंट पेज के नीचे लिखा है खबरों के जन्मस्थान में आपका स्वागत है। लगता है किताब का नाम न्यूजरूम रखने की बजाए जानबूझ कर न्यूजमैन एट वर्क रखा गया।

किताब के बेक कवर पेज पर लिखा है कि न्यूजमैन एट वर्क लक्ष्मी प्रसाद पंत के 20 वर्ष के न्यूजरूम जीवन में सामने आयी सच्ची घटनाओं का एक दिल छूने वाला दस्तावेज ही है। मेरा पूर्वाग्रह तो यही था कि पंत जी भी एक एडिटर है दूसरे एडिटरर्स की तरह। हुक्म जाड़ने वालों की तरह। लेकिन पंत जी को एक पत्रकार समझकर भी इस किताब को पढ़ना चाहिए। 

एडिटर व लेखक पंत जी ने इस किताब में बताया है कि न्यूज रूम में आने वाली खबरों का पोस्टमार्टम कैसे किया जाता है। पोस्टमार्टम करते समय न्यूजमैन के हाथ कांपने लगते है, दिल की धड़कनें तेज रफ्तार पकड़ लेती है, डर लगने लगता है, गुस्सा आने लगता है और बाद में इन सबकी परिणीति एक मारक हेडलाइन व तथ्यों से गुंथी भावुक कर देने वाली खबर हमारे हाथों में होती है। 
किताब में कुल 21 कहानियां है। दरअसल ये कहानियां 21 खबरों पर ही लिखी गई है। आॅलमोस्ट ये सभी खबरें दैनिक भास्कर में छप चुकी है और इन पोपूलर खबरों को हम पहले पढ़ भी चुके है। अब आप कहेंगे कि फिर इस बुक में नया क्या है ? 
बताता चलूं कि इस बुक में नया ये है कि ये खबरें, पोपूलर खबरें कैसे बनी ? 

इस बुक में बताया है कि खबरें किस रूप में न्यूज रूम में आई  और फिर रात में न्यूज रूम में क्या कुछ हुआ, कैसे कोई खबर लीड खबर के रूप में सुबह हम पाठकों के हाथों में आकर पोपूलर बन गई। कैसे अखबार के कर्मचारी (संपादक, संवाददाता, डेस्ट प्रभारी, प्रुुफ रीडर, एड शेड्यूएल और सर्कुलेशन) एक-एक खबर के लिए काम करते है।  

इस किताब के कुल 148 पेज है। 17वें पेज से लेकर आखिरी पेज को पढ़ते हुए आपको लगेगा कि किताब का नाम न्यूजमैन की बजाए न्यूजरूम होना चाहिए था। यह मेरा पूर्वाग्रह हो सकता है कि मैं न्यूजमैन को महज एक संवाददाता के रूप में देखता हूं। इसलिए मैं इस बुक में न्यूजमैन को ढूंढ़ता रहा और मुझे वो केवल 3 कहानियों में ही दिखा और सच कहूं तो पाठक के तौर पर उन 3 कहानियों को पढ़ने में अन्य कहानियों की बजाए अधिक दिलचस्पी रही। 

रोजाना सुबह जो अखबार हमारे हाथ में आता है, उसका जन्म कैसे होता है, उससे ये किताब आपको अवगत कराती है। हम सभी कोई ना कोई अखबार जरूर पढ़ते है, किसी न किसी पत्रकार को भी जानते है, हम यह भी जानते है कि हमारे आस-पास घटने वाली घटनाओं की सूचनाएं खबर के रूप में अखबार में हमें मिलती है। हम ये भी जानते है कि कुछ खबरें पहले पेज के उपर तो कुछ खबरें पहले पेज के नीचे के हिस्से में छपती है। कुछ खबरें क्रमशः पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे . . . पेज पर छपती है। कुछ पेजों पर विज्ञापन छपते है। आखिर खबरें या विज्ञापन अखबार के किस पन्ने पर और किस जगह पर छपने है, ये कैसे तय होता है ? अगर इन सवालों के जवाब भी आप जानना चाहते है तो आपको ये किताब पढ़नी चाहिए। 21 खबरों की 21 कहानियों को पढ़ने पर आपको अपने सवालों के जवाब भी मिल जायेंगे।
इस किताब के पेज 7 से 12 में लेखक ने इस किताब के उद्देश्य के बारे में बताया है। आमतौर पर आम जनता तक पत्रकार की हत्या, पत्रकार पर हमले और पत्रकार पर आरोप की खबरें तो पहुंच जाती है लेकिन एक खबर के तथ्य जुटाने, खबर लिखने और खबर को पाठक तक पहुंचाने के लिए पत्रकार कितने तनाव व सदमें से गुजरता है, कितनी चिंता उसे होती है और कितना गुस्सा आता है। इन सब के बारे में लेखक ने अवगत कराया है। 

अपनी किताब में लेखक ने कई चिंतकों व वरिष्ठ पत्रकारों के वक्तव्यों को स्थान दिया है। 
जैसे - 
‘‘अगर लिखते वक्त पत्रकार की आंखों में आंसू नहीं है तो पढ़ते वक्त पाठकों की आंखें भी सूखी ही रहेंगी।’’ - राॅबर्ट फ्राॅस्ट
‘‘पत्रकारिता कभी खामोश नहीं हो सकती, यही उसकी सबसे बड़ी खूबी और सबसे बड़ी कमी भी है।’’ - हेनरी एनातोले
‘‘पत्रकारिता आपको मार डालेगी लेकिन जब तक आप इसे करेंगे यह आपको जीवित रखेगी।’’ - होरेस ग्रीले-एडिटर, न्यूयार्क ट्रिब्यून

हर कहानी के इंट्रों में मारक बातें लिखी गई है। हर कहानी का इंट्रों जोरदार है वहीं हर कहानी का अंत एक संदेश भी देता है। वे कहते है - जिम्मेदारी पत्रकारिता का सच्चा रोजनामचा है। पंत जी आगाह भी करते है। कोटा के कोचिंग बाजार में कई मासूम आत्महत्या कर चुके है। कई सुसाइट नोट पढ़ चुके पंत जी लिखते है कि अपने आस-पास देखिए कोई अपना तो नहीं जो ऐसी ही तकलीफ से गुजर रहा हो। खबरें भी सीखने की पाठशालाएं ही हैं।

शोक संदेशों के क्लासिफाइड एड के प्रुफ रीड़र प्रफुल्ल के बारे में भी पंत जी ने पूरी एक कहानी छापी है। वाकई में अखबार को तैयार करने में कई लोगांे का योगदान रहता है। प्रुफ रीडर का भी महत्वपूर्ण रोल होता है। क्लासिफाइड पेज पर शोक संदेश, उठावणे व श्रद्धांजलि के सैकड़ों विज्ञापन होते है। इनकी प्रुप रीड़िंग का कार्य भी अत्यंत महत्वपूर्ण काम है। जरा सोच के देखिए कि बारहों मास आपको ऐसे ही संदेशों को पढ़ना और उनमें सुधार करने का कार्य सौंपा जाए तो क्या होगा ? पंत जी संवेदनशील व्यक्ति है, उन्होंने प्रुफ रीडर की स्थिति से भी हमें अवगत कराया है। पंत जी के सुझाव को मैं अमल में लाऊंगा। मैं जल्दी ही प्रुफ रीडर प्रफुल्ल जी से मिलूंगा। 

20वीं कहानी मौताणा प्रथा से जुड़ी है। उदयपुर जिले के कोटड़ा क्षेत्र के एक गांव में एक व्यक्ति का शव मिला था। उस व्यक्ति के गांव वालों ने मौताणा की मांग करते हुए शव को आंगनबाड़ी केंद्र के बाहर लटका दिया। वो शव डेढ़ साल तक लटका रहा। पंचों को मौताणा नहीं मिला इसलिए लाश लटकी रही। यह खबर कोटड़ा के दैनिक भास्कर के संवाददाता शाहिद खान के द्वारा जयपुर दैनिक भास्कर के न्यूजरूम में पहुंची। कहानी में पंत जी ने लिखा कि लाश डेढ़ साल तक लटकी रही और इसकी खबर 9 माह बाद जयपुर के न्यूज रूम में पहुंची। यहां पाठक का सिर थोड़ा चकरा सकता कि यह कैसे ? पंत जी लिखते है कि खबर के लेट हो जाने के पर पत्रकार शाहिद खान से पूछा गया तो उसने बेझिझक कहा कि - सर यहां तो ये सब चलता रहता है, चूंकि नौ माह हो चुके है इसलिए अब खबर भेजी गई है। एक-दो माह की तो भेजते ही नहीं है। 
चूंकि मैं स्वयं कोटड़ा के समीपवर्ती क्षेत्र में ही रहता हूं इसलिए जानता हूं कि शाहिद खान बहुत ही एक्टिव व प्रोग्रेसिव जर्नलिस्ट है। उनके द्वारा यह कह देना कि शव एक-दो माह पूर्व ही लटकाया होता तो वो खबर भेजते ही नहीं ! ये बात गले नहीं उतर रही है। उन्होंने ऐसा क्यों कहा ? वो ही जाने, मैं तो जानता हूं  कि मरने, मारने और शव लटकाने की खबर तो दूर, मौताणा मांगने की रणनीति बनाए जाने की खबर भी सबसे पहले शाहिद भाई तक पहुंच जाती है। 
मैं यहां यह भी बताना चाहता हूं कि साल में इक्का-दूक्का मौताणा के लिए चढ़ोतरे की घटनाएं होती रहती है। गत वर्ष सिरोही से आए आदिवासी समाज के लोगों ने पुलिस पर भी हमला कर दिया था। लेकिन किसी के शव को लटका दिया जाता हो ऐसी खबरें इतनी भी नहीं है कि उनके बारे में ऐसा कह दिया जाए।

हो सकता है कि पत्रकारों को यह किताब ज्यादा रास ना आए या कुछ नया ना लगे लेकिन आम लोगों के लिए यह खास है। उनके लिए निश्चित ही इस किताब में नई जानकारियां है। खबरें तो आप रोज पढ़ते है, इस किताब में खबरों की कहानियां भी पढ़िए . . . 

Laxmi Prasad Pant Anand Choudhary Shahid Khan Bhanwar Meghwanshi

Sunday, December 29, 2019

उत्तरी भारत के वरिष्ठ पत्रकार से दक्षिणी राजस्थान के एक कनिष्ठ पत्रकार का अनुरोध

उत्तरी भारत के पिलंग गांव के पहाड़ी पत्रकार ने दक्षिणी राजस्थान के पहाड़ियों पर उपकार कर दिया
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दैनिक भास्कर के 100 दिन 100 खबरें अभियान के तहत संवदेनशील पत्रकार आनन्द जी चौधरी और फोटो जर्नलिस्ट अनिल जी र्मा ने जान जोखिम में डालकर स्टींग किए। इस अभियान के तहत विगत दिनों ‘‘मानव तस्करी-बाल श्रम’’ पर और झोलाछाप डाॅक्टरों के मुद्दे पर अलग-अलग खबरें प्रकाशित की गई थी। इन दोनों ही खबरों का जोरदार असर हुआ है, ऐसा असर हुआ है कि बरसों से दबाए रखे गए मुद्दों पर सरकार एक्शन मोड़ में आ गई है।
मैं बरसों से इन मुद्दों पर काम कर रहा था, उम्मीद थी कि एक ना एक दिन ‘‘मानव तस्करी’’ की रोकथाम की जाएगी। बचपन को बचाया जाएगा। झोलाछापों को अपने झोले समेटने पडेंगे।
वो दिन अंततः आ ही गए। दैनिक भास्कर के स्टींग प्रकाशित होने के बाद सरकार के निर्देश पर प्रशासन ने बड़ी कार्यवाहियां की है।
गुजरात के सूरत शहर से कल 100 से अधिक बच्चों को बाल श्रम से मुक्त कराया गया है। मानव तस्वरी की रोकथाम के लिए उदयपुर जिले के कोटड़ा ब्लाॅक में 8 चैक पोस्ट बनाए जायेंगे।
कल उदयपुर जिले सहित राजस्थान के अलग-अलग जिलों में सैकड़ों झोलाछापों पर कानूनी कार्यवाहियां की गई।
दैनिक भास्कर के स्टेट एडिटर एल.पी. पंत जी ने क्रांति ला दी है। पंत जी मूलतः पहाड़ी है, उत्तरी भारत के उत्तराखण्ड के चिमौली जिले के पंत जी ने दक्षिणी राजस्थान के पहाड़ी हजारों-लाखों लोगों के जीवन को संकट से बचाया है।
मैं सुदूर जंगल में पहाड़ी पर बैठा देख रहा हूं कि अरावली पहाड़ी क्षेत्र में कई एनजीओ श्रम, प्रवास व स्वास्थ्य के मुद्दे पर काम कर रहे है, लेकिन उनकी दूकान में सामान कम है। अगर सामान होता तो नजर आता। इनके मालिक विदेशी फण्ड से अपने घर भरने और महंगे शौक पूरे करने में लगे है। दैनिक भास्कर की मुहिम से इन दोनों ही मुद्दों पर तगड़ा काम सरकार ने शुरू कर दिया है। अब कई एनजीओ की दूकानें बंद होने की नौबत भी आएगी।
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उत्तरी भारत के वरिष्ठ पत्रकार से दक्षिणी राजस्थान के एक कनिष्ठ पत्रकार का एक अनुरोध -
पंत जी से अनुरोध है कि कुछ और मुद्दे है, अगर उन पर भी स्टोरी हो जाए तो दक्षिणी राजस्थान के पहाड़ वासियों पर आपका उपकार हो जाएगा।

Wednesday, March 20, 2019

गुरू बिन गौर अंधेरा - 2 : इस तरह हासिल हुई प्राथमिक शिक्षा (मैं गुरूजनों को भजन सुनाकर भाग जाया करता था)

Lakhan Salvi : 9828081636
बंशी महाराज की पाठशाला में आखर ज्ञान और गिनती व पहाड़ें सीख लिए तो पिताजी ने मुझे उला बसस्टेण्ड वाले राजकीय प्राथमिक विद्यालय में भर्ती करवा दिया। इस स्कूल का वो स्वर्णिम समय था। 35 वर्ष की आयु में से देखा जाए तो सबसे अच्छा समय वो ही था जो इस स्कूल में बीता। स्कूल में उत्तर पूर्व में पूर्व से पश्चिम की ओर क्रमवार बड़े-बड़े कमरे बने हुए थे, जिनके आगे बरामदा था और केंद्र में बड़ा सा चबूतरा, जिसे हम स्टेज कहते थे। स्टेज के आगे बहुत बड़ा ग्राउण्ड, जिसके एक कोने में कब्बड्डी का व स्टेज के ठीक सामने खो-खो का ग्राउण्ड तथा उसके बगल में ओपन पानी का होद (टेंक) था। टैंक को पानी पीने की टंकी से एक ओपन कच्ची नाली के द्वारा जोड़ रखा था, ताकि टंकी से व्यर्थ बहने वाला होद में एकत्र हो जाए। इस टैंक में कछुएं, केकड़े और मैंढ़क तैरते दिखाई देते थे, जिनसे हम बालमन बहुत खेलते थे। 
जब मैं बंशी महाराज की पाठशाला में पढ़ता था तब हम गांव के बीच हमारे मोहल्ले में रहते थे। मुझे प्राथमिक विद्यालय में भर्ती करवाने के दौरान ही पिताजी ने बसस्टेण्ड के पास व राजकीय प्राथमिक विद्यालय के भवन के एकदम समीप मकान बना लिया था। यह 1987-88 की बात है।

प्राथमिक स्कूल के चारों ओर आदमकद दिवारें थी। मुख्यद्वार पर लोहे का बड़ा गेट था। इस स्कूल में मैं पहली से लेकर 5वीं तक पढ़ा। ब्लू कलर का शर्ट और खाकी कलर की हाफ पेंट, ये स्कूल का ड्रेस कोड़ था।  स्कूल में ये गुरूजन थे और उनसे क्या सीखा और गुरूजनों के साथ क्या वाक्ये हुए पढ़िए इस भाग में - 

यह आज की तस्वीर है, स्कूल के बाहर ऐसी गंदगी पहले नहीं रहती थी
रूस्तम जी (प्रधानाध्यापक) : ये मस्जिद के पास रहते थे। बाद में भीलवाड़ा चले गए। हम बच्चों में इनको लेकर बड़ा भय था। बुलंद आवाज थी, हम सभी उनसे काफी डरते थे। पर मैंनें कई मौको पर देखा वो क्रूर नहीं थे। वे मन से स्नेही थे। बच्चों पर नियंत्रण के लिए वे रोद्र रूप दर्शाये रखते थे। 
सीख - कहां, कब और कैसा व्यवहार करना।  

शिवप्रसाद जी शर्मा - (रायपुर वाले) : रायपुर से रोजाना अपडाउन करते थे। एकदम सफेद जक्क पेंट-शर्ट पहनते थे। शर्ट सलीके से इन रहती थी, ब्लैक बेल्ट लगाते थे। उनकी आवाज बड़ी तेज थी लेकिन वे हंसते भी खूब थे। बच्चों को पढ़ाने के साथ-साथ खो-खो, कब्बड्डी जैसे कई खेल सिखाते थे। शायद वे शारीरिक शिक्षक थे। सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजनों की जिम्मेदारी उनके कंधों पर होती थी इसलिए वे मेरे सबसे प्रिय थे। 
सीख - नैसर्गिक चरित्र नाम की चिड़िया भी होती है, जीवन को केवल नियमों में ही नहीं बांधे। 

सोहन जी बागरिया - (गंगापुर) : ये गंगापुर के मैलोनी के थे। तात्या टोपे के जैसी मूंछ रखते थे। इनके संदर्भ कहा जाता था कि ये कड़ाके की सर्दी में भी ठण्डे पानी से नहाते है, रोजाना नहाते है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमने टूर्नामेंट के दौरान देखा जब एक साल हमारी स्कूल की कई खेलों की टीमों को काला का खेड़ा में आयोजित टूर्नामेंट में ले जाया गया था। ये पेंट-शर्ट (शर्ट इन), बेल्ट व जूते पहने हुए ही आते थे। नियमित जीवन शैली के ये तगड़े उदाहरण थे। जो बच्चे पढ़ते नहीं थी उनकी ये खूब सूताई करते थे। मैं इनसे काफी डरता था। ये खानाबदोश बागरिया समाज के पहले ऐसे व्यक्ति थे जो अन्य समाजों के लोगों पर भी अपनी गहरी छाप छोड़े हुए थे। ये पढ़ाने के साथ गेम्स भी सीखाते थे।
सीख - नित नियम का जीवन में महत्व। 

लक्ष्मीकांता जी पालीवाल - (कोशीथल) : अध्यापक गणों में तीन सबसे बड़े थे। रूस्तमअली जी, असगर अली जी और लक्ष्मीकांता बेनजी। लक्ष्मीकांता बेनजी का हम बच्चों में खौफ रहता था। उनका रवैया स्कूल में ठीक वैसा था जैसा घर पर दादी का होता है। वे बोलती सबसे लास्ट वाले कमरे में और आवाज आती सबसे फर्स्ट कमरे में, मल्लब इतनी तेज आवाज थी उनकी। मैं एक बार उनसे नाराज हो गया, वो नाराजगी आज तक मन में है। दरअसल, एक दिन नहाकर बालों में बिना तेल लगाए मैं स्कूल चला गया, थोड़ा लेट भी हो गया था इसलिए प्रार्थना के समय लेट आने वालों की लाइन में खड़ा रहना पड़ा। लक्ष्मीकांता बेनजी लेट आने वालों का रिमाण्ड ले रही थी, वो सजा देने के नाम पर कान खिंचती थी। मेरा नम्बर आया तो - बोली बालों में तेल क्यों नहीं लगाया ? मैं बोला - भूल गया बेन जी। तब उन्होंने मेरे कान खिंचते हुए मेरे बड़े पाप्पा के लड़के लीलाधर को आवाज देकर बुलाया, उसके बालों में ज्यादा तेल दिखाई दे रहा था। बेन जी हम दोनों के सिर आपस में रगड़वाए, जैसे सांड एक दूसरे से लड़ते है, एक दूसरे को सिर लगाकर . . . ठीक वैसे ही। उस दिन मुझे बहुत शर्मन्दगी महसूस हुई। ये बात शायद न तो लक्ष्मीकांता बेनजी को याद होगी और ना ही लीलाधर या अन्य देखने वालों को लेकिन मुझे पूरा दृश्य साफ-साफ याद है। 
सीख - टेक ओवर करना, कैप्चर करना। 

असगर अली जी - (रायपुर वाले) : ये रायपुर के थे। बच्चों को सजा देने की सबकी अलग-अलग स्टाइल होती है, ये कांख के नीचे बाजू के अंदर की तरफ चुंटिया (चिमटी काटना) भरते थे। पर उनका सानिध्य बहुत अच्छा लगता था। 
सीख - अपने काम को प्राथमिकता देना। 
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जब मैं गुरूजनों को भजन सुनाकर भाग जाया करता था

हीरा लाल जी सुथार - (रायपुर वाले) : सबसे लम्बे मारसाब थे ये। लम्बे और पतले दूबले भी। हर वक्त हंसते रहते। चलते ऐसे जैसे उचकते उचकते चल रहे हो। हाथ एक छोटा पर्स रहता था इनके। ये लकड़ी की स्केल से पिटाई करते थे। मारते तो ऐसा लगता हल्के से मार रहे है लेकिन लगती बहुत तेज थी। 

बहुत दुःख के साथ बता रहा हूं कि एक बार मैंनें इनके साथ बदतमिजी कर दी। दरअसल मेरा स्वभाव बचपन से ही ऐसा रहा है कि मैं गलत को बर्दास्त नहीं कर सकता। शायद तब मैं कक्षा 4 या 5 में पढ़ता था। एक दिन इंटरवेल के बाद हिरा लाल जी की क्लास थी। मेरे पास मांगी लाल जी सालवी का रमेश सालवी बैठा हुआ था। हिरा लाल जी हम चुप रहने की चेतावनी देकर किसी काम से कक्षा से बाहर चले गए, वापस आए तब रमेश मुझसे कुछ कह रहा था। यानि मैं कुछ नहीं बोल रहा था, रमेश ने शायद मुझसे स्केल मांगा था। इधर हिरा लाल जी क्लास में एंटर हुए - रमेश को बोलते हुए और मुझे उसे स्केल देते हुए देख लिया और गुस्से में आकर मेरी हथेलियों पर स्केल से जड़ दी। मैं गुस्से से आग बबूला हो गया और दौड़कर क्लास के दरवाजे से बाहर निकल कर वापस क्लास की ओर मुड़ा, हीरा लाल जी को भजन सुना दिए और भाग गया। मल्लब मेरा कहना था कि मैं तो नहीं बोला था ना। फिर मुझे क्यों मारा ? मेरे साथ कभी अन्याय हुआ तो फिर मैंनें ये नहीं देखा कि अन्याय करने वाला कौन है। मैंनें अपने सामर्थ्य के अनुसार विरोध किया। (भाग कर मैं कहां जाता था और आगे क्या होता था, यह जानने के लिए आप पढ़ते रहे मेरा ब्लॉग) 
सीख - हंसते रहो, मस्त रहो। 

कौशल्या जी पालीवाल (खैराबाद के)  : कौशल्या बेनजी। ये सबसे सीधे साधे थे। बैलेंसिंग। ना अधिक लोकप्रिय और ना ही शून्य। इतने दुबले पतले की धक्का लग जाये तो नीचे गिर जावे। न कभी बच्चों को मारते देखा न ही डांटते डपटते। कोई गलती करता तो उसे ये हिकारत भरी नजरों से देखते थे, बस यह ही काफी था, बच्चों पर नियंत्रण के लिए। 
सीख - अपने काम से काम रखो। 

पहली व दूसरी क्लास में इन अध्यापकगणों ने ही हमें पढ़ाया। शायद में तीसरी कक्षा में आया तब अध्यापक सलेक्शन हुए थे, और गांव के ही सुरेश जी खटीक व धन्ना लाल जी रेगर, ये दो अध्यापक नए आए। 

धन्ना लाल जी रेगर - (कोशीथल वाले) : नाटे कद के धन्ना लाल जी मारसाब सरल स्वभाव के थे। शर्ट को पेंट में इन किए हुए धीरे-धीरे चलते आते थे। 

धन्ना लाल जी मारसाब ने बहुत ही कम समय में बच्चों में मन जगह बना ली थी। वे बहुत अच्छा पढ़ाते भी थे। मेरी ही बुरी किस्मत रही कि मेरे प्रिय अध्यापक होने के बावजूद भी मैंनें उनके साथ बुरा बर्ताव कर दिया। इसके पीछे भी कारण वहीं रहा गलत का विरोध करने का। मैं तीसरी में पढ़ता था, धन्ना लाल जी दूसरे या तीसरे कालांश में पढ़ाने आए थे। पढ़ाने के बाद बच्चों को रिडिंग करने का बोल के वे किसी काम से बाहर गए। कक्षा के बच्चे जोरजोर से बातचीत करने लग गए जिससे हो हल्ला होने लगा। फिर अचानक धन्ना लाल जी कमरे आए, दरवाजे के सीध में मैं बैठा हुआ था, उन्होंने गुस्से में आव देखा न ताव देखा मेरी हथेलियों पर बांस की लकड़ी से मार दी। बांस की लकड़ी का एक तंतु मेरी हथेली में घुस गया, जिससे मुझे भारी पीड़ा हुई। मुझे भयंकर गुस्सा आ गया, इतना गुस्सा पहले कभी नहीं आया। मुझे मारकर धन्ना लाल जी ब्लेक बोर्ड के पास कुर्सी पर जाकर बैठ गए। क्लास में सन्नाटा पसर गया। मैं अचानक उठा, दरवाजे के बाहर गया और अंदर झांकते हुए धन्ना लाल जी मारसाब को भजन सुना दिए और भाग गया। (भाग कर मैं कहां जाता था और आगे क्या होता था, यह जानने के लिए आप पढ़ते रहे मेरा ब्लॉग) 
सीख - सादगी व शांतचित्त।

सुरेश जी खटीक - (कोशीथल वाले) : बड़े डिप्लोमेटिक परसन। डिप्लोमेटिक की परिभाषा तो मुझे नहीं आती थी लेकिन मेरे जीवन में फर्स्ट परसन सुरेश जी खटीक ही थे जिनसे मैंनें डिप्लोमेसी को समझा। इनकी मुझे एक दो क्लासें ही याद है। जोर जोर से बोलकर पढ़ाते थे और ऐसे पढ़ाते थे कि हम बच्चे यह महसूस कर लेते थे कि वे किसी ओर को बताने के लिए हमें इस तरह पढ़ा रहे है। इसे आप या सुरेश जी मारसाब हम बच्चों का एन्ज्म्पशन भी कह सकते है। 

स्कूल के अंदर का दृश्य (यह चित्र आज ही लिए गए है।)
तो ऐस थे मेरे गुरूजन। और उनसे ऐसी प्रारम्भिक शिक्षा मैंनें प्राप्त की। जो वाकये मैंनें बताए है शायद गुरूजन उन्हें भूल चुके होंगे। मुझे इसलिए याद रहे कि मुझे उनके व्यवहार से दुःख पहुंचा था और मेरे द्वारा किए गए व्यवहार से भी मुझे दुःख पहुंचा था। जब इतना दुःख पहुंचा तो वाकये याद रहना लाजमी भी है।

काकी जी - (कोशीथल वाले) : काकी जी, बोले तो श्याम जी तम्बोली की माता जी। स्कूल में करीब 200 बच्चे थे। रोजाना अंतिम कालांश के बाद व छुट्टी के पहले दलिया बंटता था। काकी जी दलिया बनाती थी। इतना स्वादिष्ट होता था पूछिए मत। अंतिम दो कालांशों के दौरान तो पूरे स्कूल में दलिये को खुश्बू फैल जाती थी। गेहूं के दलिए को तेल में भुनने के बाद पानी में पकाती थी काकी जी। जिन-जिन ने काकी जी के हाथ का दलिया खाया, मैं दावे के साथ कह सकता हूं वैसा स्वादिष्ट दलिया और कहीं नहीं खाया होगा। सब बच्चे बड़ा गोला बनाकर ग्राउण्ड में बैठ जाते थे। चार-पांच बड़े बच्चों को बांटने की जिम्मेदारी दी जाती थी। हम अपने साथ कागज का टुकड़ा रखते थे, जिस पर दलिया लेते थे और फिर चाव के साथ खाते थे। 

मेरे कई नाम रहे। कई लोग लच्छु कहते, कई लक्ष्मण, तो कई लक्ष्मीकांत। मोहल्ले के कुछ लोग गणेश कैसे कहने लग गए, ये आज तक समझ में नहीं आया। मेरे नाम में लोचा भी इसी स्कूल से हुआ। 

जब में 8-10 साल था, तब मेरे हाथ में मेरी जन्म पत्री लगी। किसी पंडित जी ने मेरे जन्म की तारीख और समय के साथ कई नाम लिखे हुए थे, उनमें से दो-तीन नाम ये थे - लक्ष्मण, लक्ष्मीकांत, लखन, लालकृष्ण, लक्ष्मीनारायण। जब मैं कक्षा 5 में था तब मन में सवाल उठा कि स्कूल के रजिस्टर मेरा नाम लक्ष्मी लाल कैसे हुआ ? 

एक तथ्य है कि किसी भी बालक का नाम लक्ष्मीकांत, लक्ष्मी लाल, लक्ष्मीनारायण, लक्ष्मण, लखन, लच्छीराम होता है तो खासकर गांव में उसका सोर्ट नाम लच्छु हो जाता है। मैंनें अपनी तफ्तीश में पाया कि स्कूल के दौरान मेरा नाम लच्छु बताया गया था जिसे नाकांकनकर्ता ने अपनी सूझबूझ से लक्ष्मी लाल लिख दिया। मल्लब में लच्छु के नाम से स्कूल में घुसा और लक्ष्मी लाल बनकर स्कूल से निकला। 

इस स्कूल में कौन-कौन थे मेरे दोस्त। सहपाठियों के साथ कैसा बीता मेरा समय और यहां क्या-क्या सीखा, कितना हुआ सर्वांगिण विकास . . . क्या असल जिन्दगी में मैं लक्ष्मी का लाल बन पाया ? पढ़ते रहिए मेरा ब्लॉग -  

लगता है आज होली है !


  • लखन सालवी


Lakhan Salvi
मयखानों पर भीड़ है,
हर चौगान में रेलमपेल है,
बाजारों में रंगत है,
शबाब को शब का इंतजार है,
लगता है आज होली है।


सब अपने-अपने अनोखे रंगों में रंगे हुए है,
परदेशी आया है गांव में सब सजे हुए है,
जंगल है, यहां अभी मंगल ही मंगल है,
लगता है आज होली है।

कईयों ने खाए है पान,
किसी ने पी है भांग,
कोई देशी तो कोई इंग्लिस पीकर फुल मस्त है,
लगता है आज होली है।

कोई सज धज कर आया है सूरत-मुम्बई-अहमदाबाद से।
प्रियतम के लिए लाया है लहंगा-चोली परदेश से।

कोई लगा के कानों में ईयर फोन,
चबाते हुए दांतों से तानसेन,
गुनगुना रहा है जैसे वो हो पलास सेन।

आज होटल-रेस्टोरेंट नहीं मिलेंगे खाली,
यहां भी बिकेगी मय, बंद कमरों में मिलेगी शबाब की टोली।
मिलेंगे हमजोली क्योंकि है ना होली।

चौगानों-चौराहों में,
गलियों और मोहल्लों में,
होली में उड़लेंगे घी-तेल, फिर आग लगायेंगे,
बुराई को जलायेंगे।

प्रेम से जलाना सीख गए हम,
लगाकर कुमकुम का तिलक,
देकर नारियल की सप्रेम भेंट,
सम्मान सहित जलायेंगे,
अंत में जाते-जाते पानी की चार बूंदें छिड़केंगे,
बुझ ना जाये आग, ध्यान पूरा लगायेंगे।

Tuesday, March 19, 2019

अभी तो आबकार ही साहूकार है, इसी के भरोसे चल रही सरकार है . . .

  • लखन सालवी 
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Lakhan Salvi (lakhandb@gmail.com)
कोई तन दुःखी, कोई मन दुःखी, 
कोई धन बिन रहत उदास,
थोड़े थोड़े सब दुःखी,
सुखी राज के दास।
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कहां चली गई लक्ष्मी ?
और क्यों अनमेने है सब ?
क्यूं नहीं जम रही होली की रौनक ?
पता करने में मैं चला, साईकिल पर हो सवार चला . . .
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पता चला लक्ष्मी रूंठ गई,
नेताजी और सेठजी से,
जनता और जनसेवकों से,
व्यापारियों और ठेकेदारों से,
सरपंचों और सचिवों से।
रूंठ गई वो चुनाव लड़नारों से।
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दुःखी हो रहे है सड़कों के ठेकेदार।
परेशान है शराब के दूकानदार।
चिंता में है किसान, पीड़ा झेल रहे है कामगार।
वसूली पर अड़े हुए है अखबार इसलिए खुश नहीं है पत्रकार।
हम सब है परेशान आखिर क्यों नहीं सुन रही है राजस्थान सरकार।
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ओह . . . आड़े आ रहा है निर्वाचन आयोग का एक अधिकार।
रूकवा दिया है भुगतान इसलिए बढ़ गया हम सब पर भार।
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समझ में आ गया अर्थशास्त्र,
जैसी करनी वैसी भरनी,
कुछ ऐसा ही बताते है हमारे धर्मशास्त्र,
आओ अब मिलकर खोजे ब्रह्मास्त्र।
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अरे, पर लक्ष्मी रूंठ कर आखिर कहां गई ?
चुप . . . ये मत पूछो,
अभी तो गए है चुनाव विधानसभा के,
विधायक बनने को कुछ तो खुद ही लुटे थे,
कुछ को कईयों ने लूटा था,
लक्ष्मी को रखा था गिरवी,
फिर शराब, शबाब परोसा था,
कंगाल होना तो लाजमी ही था।
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सब के सब कंगाल है,
समस्या बड़ी जटिल है,
अब तो कदम भी बोझिल है,
हाय रब्बा हम कितने बुझ दिल है।
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अड़े बाबा तुम बताओ लिक्षमी कहां गई ?
सुनो,
चली गई महत्वाकांक्षियों संग,
जम गई सत्ता नशीनों की हवेलियों में
ट्रांसफर हो गई पार्टियों के बैंक खातों में।
कुछ जमा हो गई आबकार में।
फिर उतरेगी तुम्हारे पेट में।
और चढ़ेगी दिमाग में,
इस तरह तुम किसी को भेज दोगे संसद में।
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अभी सब दिवालिये हो गए का ?
नहीं नहीं अभी तो आबकार साहूकार है,
इसी के भरोसे चल रही सरकार है।

Saturday, March 16, 2019

गुरू बिन गौर अंधेरा - 1 : बंशी महाराज की पाठशाला में तैयार हुई खेंप का एक नमूना हूं मैं


कबीरा जब हम पैदा भये, प्ले स्कूल थी नाय,

चलने लगे पैरों पे तो भेज दिए गए पाठशाला माय।

मैंनें अपनी पढ़ाई उस पाठशाला से आरम्भ की, जहां ज्ञान को मापने का पैमाना परीक्षा परिणाम वाला कागज का टुकड़ा नहीं था . . . 40 तक पहाड़े बिना देखे फुल कांफिडेंस से 30-40 बच्चों के बीच मारसाब के सामने बोल लेते, हिन्दी में बोले हुए को सुनकर लिख लेते और बंशी महाराज कह देते - शाबास . . .। बस यह शाबासी ही परीक्षा का परिणाम थी।


ऐसे थे बंशी महाराज - बंशी महाराज लगभग 60-65 के रहे होंगे तब। सिर के उपर का भाग एकदम बंजर था। चारों ओर सफेद व हल्के काले बाल। सफेद जग चेहरा, शायद तब भी रोजाना दाढ़ी मूंढ़वाते थे। कभी चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ नहीं देखी। सफेद कुर्ता व सफेद धोती। चौड़े होकर चलते थे, इसलिए नहीं कि दंभी थे बल्कि शायद पैरों या घुटने में तकलीफ थी। धीरे-धीरे चलते थे। रास्ते में जो भी मिलता उससे राम-राम, हरिओम कहते थे और लोग उनका बड़ा सम्मान करते थे।

80 के दशक में प्राईवेट स्कूल नहीं हुआ करते थे, गांव में तीन सरकारी विद्यालय थे। दो विद्यालय उला बसस्टेण्ड पर और एक विद्यालय पेला बसस्टेण्ड के पास। उला बसस्टेण्ड पर स्थित दो विद्यालयों में से एक प्राथमिक था, जिसमें बालक-बालिकाएं साथ पढ़ते थे, दूसरा है उच्च माध्यमिक विद्यालय। जिसमें कक्षा 6 से 10 तक केवल बालक पढ़ते है और उसके बाद 11 व 12वीं में बालक-बालिकाएं साथ पढ़ते है। तीसरा है, बालिका माध्यमिक विद्यालय, जो कि पेला बसस्टेण्ड के समीप जाटों का मोहल्ला में स्थित है।

गांव में दो बसस्टेण्ड है, एक को उला बसस्टेण्ड (गंगापुर की ओर से जाने पर पहला वाला बसस्टेण्ड) व दूसरे को पेला बसस्टेण्ड (गंगापुर से रायपुर जाते समय कोशीथल मुख्य बसस्टेण्ड से आगे वाला दूसरा बसस्टेण्ड) कहते है।

जब मैं चलने-फिरने लग गया मतलब 3-4 साल हो गया तो मोहल्ले के बच्चों के साथ मुझे भी बंशी महाराज की स्कूल में भेजा जाने लगा। एक प्लास्टिक का थैला पकड़ा दिया जाता था, जिसमें एक पट्टी (ब्लैक स्लेट) व बर्तन (सफेद चॉक) होते थे। मेरे सिर पर लड़कियों की तरह लम्बे बाल थे, जिन्हें कभी-कभी मेरी मां और कभी-कभी हमारे पड़ौस वाली लक्ष्मी बाई तेली व लक्ष्मी बाई नटराज गूंथ कर जुड़ा बना देती थी। मैं अपने मोहल्ले के अल्लामों के साथ बंशी महाराज की स्कूल (पाठशाला) में जाने लगा। तब मेरा पक्का दोस्त लेहरूनाथ रावल था। हम दोनों आते वक्त अकसर साथ आते थे, मेरे पाप्पा मुझे कुछ पैसे देते थे, कभी 5 पैसे, कभी 20 पैसे तो कभी-कभी 50 पैसे। 50 पैसे में जेब भर जाए इतनी मिट्ठी गोलियां आ जाती थी। गढ़ से निकलकर घर जाते समय मुख्य बाजार में मोहन लाल जी सेठिया की दूकान के ठीक सामने मीठा लाल जी मेहता की दूकान हुआ करती थी। वे अपनी दूकान के चबूतरे पर चुम्बक, बर्तन, ईमली और खट्टी मिट्ठी छोटी व बड़ी गोलियां रखते है, ये ही हमारे लिए केडबरी, एल्पनलिबे, किस्मी हुआ करती थी। मैं मिठा लाल जी की दूकान से ही खरीदी करता था, वे बोलते कम थे पर एक-दो गोली ज्यादा दे देते थे। वो इसलिए भी मुझे अच्छे लगते कि पहली बार जब मैं उनकी दूकान से गोलियां लेने गया तब उन्होंने मुझे पूछा - तू म्हारे प्यार जी रो भायो है रे ? वो मेरे पाप्पा को जानते थे, ये जानकर मुझे खुशी हुई और मिठा लाल जी मुझे अपने-से लगने लगे।

अब न तो मोहन लाल जी सेठिया की वो दूकान रही और ना ही मिठा लाल जी मेहता की दूकान। हां दोनों की दूकानें और वो बाजार का दृश्य मेरी दृष्टिपटल पर अभी भी ज्यों का त्यों छाया हुआ है।

पक्का दोस्त लेहरूनाथ रावल भी महादेव का भक्त हो गया और उनका प्रसाद ग्रहण करते करते न जाने अब किस दशा में है।

हमारे पूर्वज जैसलमेर से पलायन कर कोशीथल आए थे, सो हमारे कुल जमा तीन-चार ही परिवार है गांव में। सभी भाटों के मोहल्ले में रहते है, जिसमें भाट परिवार एक भी नहीं है :)। हम बच्चे भाटों के मोहल्ले से निकलकर आण (आसण-जहां नाथ सम्प्रदाय के घर होते है) से होकर बाजार में होते हुए गढ़ परिसर में पहुंचते थे।

धीरे-धीरे गांव के लोग, बाजार के लोग, गढ़ के लोग, बंशी महाराज की पाठशाला में पढ़ने वाले मेरे सहपाठी और मोहल्ले में मेरे खेलने वाले मेरे साथियों से मिलकर मेरे जीवन जीने का दायरा बढ़ता जा रहा था, और ये सब मेरे दिलोदिमाग में जगह बनाते जा रहे है। कुछ सकारात्मक तो कुछ नकारात्मक . . . .

बंशी महाराज की स्कूल का दृश्य :

मेरा गांव मेवाड़ रियायत का एक ठिकाना था। चुण्ड़ावत राजपूत यहां के ठिकानेदार थे। आजकल अपर प्राइमरी की एक बुक में मेरे गांव का जिक्र आता है, जिसमें ठिकाने की ठकुराइन द्वारा मेवाड़ रियासत की राजधानी उदयपुर के महाराजा के आव्हा्न पर युद्ध में योगदान दिया। ठिकाने के समय से ही गांव में एक गढ़ है। गढ़ के द्वार के समीप गढ़ परिसर के अंदर हिंगलाज माता का मंदिर है, जो चुण्ड़ावत राजपूत परिवारों की ईष्ट देवी है। हालांकि गांव के सभी जातियों के लोग हिंगलाज माता को मानते है, और यदाकदा मंदिर में दर्शन व पूजा-अर्चना करने आते है। गढ़ परिसर में प्रवेश करने के साथ ही दांयी ओर बड़ा ऊंचा चबूतरा है, जिसकी सीढ़ियां चढ़ने के बाद चबूतरे पर होते हुए आगे मंदिर में प्रवेश किया जाता है। इस मंदिर व चबूतरे के बगल में एक अहाता है। जिसमें तब कच्ची फर्श हुआ करती थी। इस अहाते और चबूतरे के बीच एक नीम का बड़ा वृक्ष था, शायद अब भी होगा। इस वृक्ष की छाया में बंशी महाराज की स्कूल चलती थी। बंशी महाराज के स्कूल में कोई किताब नहीं हुआ करती थी, वे वर्णमाला व गिनती तथा पहाड़ें सिखाते थे। कुर्सी पर बैठे बंशी महाराज के हाथ में हर वक्त एक छड़ी रहती थी। वे बच्चों को खड़ा करके उनसे पहाड़े बुलवाते थे। पाया, आधा, पूण्या, ढ़ाया जैसे पहाड़ें भी पढ़ाते थे। एक ढ़ायो ढ़ायो, दो ढ़ाया पांच। इस प्रकार पहाड़ें बोले जाते थे। मैं भी याद करने और बोलने का अभ्यास करता था।
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मुझे मालूम है हम दो बच्चे बंशी महाराज से काफी डरते थे। एक बार मेरे पास एक लड़की बैठी हुई थी, उसने अपनी पट्टी से मेरे सिर में ठोक दी। मैंनें भी वापस ठोक दी। मैं बंशी महाराज से इतना डरता था कि मैंनें उनसे शिकायत नहीं की लेकिन जैसे ही मैंनें उस लड़की के ठोकी तो उसने बंशी महाराज से मेरी शिकायत कर दी। बंशी महाराज ने मुझे बहुत की हेय की दृष्टि से देखा। मैं याद करता हूं तो उनकी वो हिकारत भरी सूरत आज भी मेरी आंखों के आगे छा जाती है। उन्होंने मुझे अपने पास बुलाकर मेरे हाथ आगे करवाए और छड़ी से दो-तीन मार दी। मेरे हाथ तो सामने ही रहे; छड़ी की मार झेलने के लिए; लेकिन आंखों से अश्रुओं की धाराएं बह निकली। तब आंखों से जैसे कोई धुंधलापन साफ हो गया, मानो आंसूओं से आंखों में छपी कोई ऐसी तस्वीर धुल गई हो, जैसे पानी के फव्वारे से दीवार पर छपी हुई तस्वीर धुपती है। साथ ही एक दूसरी तस्वीर उभरी जिसमें वो कुर्सी पर बैठे हुए है और मैं उनके पास खड़ा हूं, वे मेरे कंधों पर हाथ रखे हुए है और मुस्कुराते हुए देख रहे है। मैं जिद्दी आज या कल का नहीं हूं, तब का ही हूं। इससे ही समझ लिजिए कि जब तक बंशी महाराज के पास पढ़ा, उसी समय में मैंनें इस तस्वीर को हकीकत बना दिया।
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